आजु अति कोपे हैं रन राम -सूरदास

सूरसागर

नवम स्कन्ध

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राग मारू


 
आजु अति कोपे हैं रन राम।
ब्रह्मादिक आरूढ़ बिमाननि, देखत हैं संग्राम।
धन तन दिव्य कवच सजि करि अरु कर धारयौ सारंग।
सुचि कर सकल बान सूधे करि, कटि-तट कस्यौ निषंग।
सुरपुर तैं आयौ रथ सजि कै, रघुपति भए सवार।
काँपी भूमि कहा अब ह्वैहै, सुमिरत नाम मुरारि।
छोभित सिंधु, सेष-सिर कंपित, पवन भयौ गति पंग।
इंद्र हँस्यौ‍, हर हिय बिलखान्यौर, जानि बचन कौ भंग।
घर-अंबर,दिसि-बिदिसि, बढे़ अति सायक किरन-समान।
मानौ महा-प्रलय के कारन, उचित उभय षट भान।
टूटत धुजा-पताक-छत्र-रथ चाप-चक्र- सिरत्रान।
जूझत सुभट जरत ज्योंा दव द्रुम बिनु साखा विनु पान।
स्त्रोनित छिंछ उछरि आकासहिं, गज-वाजिनि-सिर लागि।
मानौ निकरि तरनि रंध्रनि तैं, उपजी है अति आगि।
परि कबंध भहराइ रथनि तैं, उठत मनौ झर जागि।
फिरत सृगाल सज्यो सब काटत चलत सो सिर लै भागि।
रघुपति रिस पावक प्रचंड अति, सीता-स्वास समीर।
रावन-कुल अरु कुंभकरण बन सकल सुभट रनधीर।
भए भस्म कछु वार न लागी, ज्यौं ज्वाला पट चीर।
सूरदास प्रभु आपु बाहुवल कियौ निमिष मैं कीर॥158॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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