उघरि आए कान्ह कपट की खानि।
सरबस हरयौ बजाइ बाँसुरी, अब छाँड़ी पहिचानि।।
जिन पय पियत पूतना मारी, दानव करी न हानि।
बलि छलि बाँधि पताल पठाए, नैकु न कीन्ही कानि।।
जैसै बधिक अधिक मृग विधवत, राग रागिनी ठानि।
अवधि आस परतीति ओट दे, हनत विषम सर तानि।।
जैसे नटसल टरत न उर तै, त्यौ ऊधौ तुम जानि।
'सूरदास' प्रभु कौं जो भावै, आयसु माथै मानि।।3857।।