ऊधौ हरि बेगहिं देउ पठाइ।
नंदनंदन दरस बिनु, रटि मरै व्रज अकुलाइ।।
मातु जसुमति सहित व्रजपति, परे धर मुरझाइ।
अति बिकल तन, प्रान त्यागत, करै कछु गति आइ।।
सकल सुरभी जूथ दिन प्रति, रुदत पुर दिसि धाइ।
जहाँ जहाँ दुहि बन चराई, मरति तहँ बिललाइ।।
परम प्यारी सरद राका, रही गृह दुख छाइ।
तजत चक्र न वक्र चख बिनु, करै कोटि उपाइ।।
जोग पद लै देहु जोगिहिं, हमहि जोग मिलाइ।
मधुप बिछरे वारि मीनहिं, अनत कहा सुहाइ।।
अग्जु जिहि विधि स्याम आवहिं, कहौ तिहिं विधि जाइ।
‘सूर’ दावा विरह व्रज जन, जरत लेहु बुझाइ।।4072।।