खेलत मैं को काकौ गुसैयाँ।
हरि हारे जीते श्रीदामा, बरबस हीं कत करत रिसैयाँ।
जाति-पाँति हमतें बड़ नाहीं, नाहीं बसत तुम्हारी छैयाँ।
अति अधिकार जनावत यातैं, जातैं अधिक तुम्हारैं गैयाँ।
रुहठि करै तासौं को खेलै, रहे बैठि जहँ-तहँ सब ग्वैया।
सूरदास प्रभु खेल्यौइ चाहत, दाउँ दियो करि नंद-दुहैयाँ।।245।।