खेलत हरि निकसे ब्रज-खोरी।
कटि कछनी पीतांबर बाँधे, हाथ लए भौंरा, चक, डोरी।।
मोर-मुकुट, कुंडल स्रवननि बर दसन-दमक दामिनि-छबि छोरी।
गए स्याम रबि-तनया कैं तट, अंग लसति चंदन की खोरी।।
औचक ही देखो तहँ राधा, नैन बिसाल भाल दिए रोरी।
नील बसन फरिया कटि पहिरे, बेनी पीठि रुलति झकझोरी।।
संग लरिकिनि चली इत आवति, दिन-थोरी, अति छबि तन-गोरी।
सूर स्याम देखत ही रीझे, नैन-नैन मिलि परी ठगोरी।।672।।