श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी84. राढ़-देश में उन्मत्त-भ्रमण
एतां समास्थाय परात्मनिष्ठा– निशा का अन्त हुआ, पूर्व-दिशा में अरुणोदय की लालिमा छा गयी, मानो प्रभु के लाल वस्त्रों का प्रतिबिम्ब पूर्व-दिशा में पड़ गया हो। भगवान भुवन-भास्कर नवीन संन्यासी, श्रीकृष्ण-चैतन्य के दर्शनों को उतावले-से प्रतीत होने लगे। वे आकाश में द्रुतगति से गमन कर रहे थे। नित्य-कर्म से निवृत्त होकर प्रभु ने अपने गुरुदेव के चरणों में प्रणाम किया और उनसे वृन्दावन जाने की आज्ञामांगी। प्रेम में पागल हुए संन्यासी प्रवर भारती महाराज अपने नवीन शिष्य के वियोग-दु:ख को स्मरण करके बड़े ही दु:खी हुए, उनकी दोनों आँखों में आंसू भर आये। आँसुओ को पोंछते हुए भारती जी ने कहा- ‘कृष्ण-चैतन्य! मैं समझता था, कुछ काल तुम्हारी संगति में रहकर मैं भी श्रीकृष्ण-प्रेम-रसामृत का पान कर सकूँगा, किन्तु तुम आज ही अन्यत्र जाने की तैयारियाँ कर रहे हो, इससे मेरा हृदय विदीर्ण हुआ जाता है। यद्यपि मैं गृहत्यागी वीतरागी संन्यासी कहलाता हूँ, तो भी न जाने क्यों तुम्हारी विछोह से मेरा दिल धड़क रहा है और स्वाभाविक ही हृदय में एक प्रकार की बैचेनी-सी उत्पन्न हो रही है। भैया! तुम कुछ काल मेरे आश्रम पर रहो। फिर जहाँ भी कहीं चलना हो दोनों साथ-ही-साथ चलेंगे।’ दोनों हाथों की अजंलि बांधे हुए चैतन्य देव ने कहा- ‘गुरुदेव! आपकी आज्ञा पालन करना तो मेरा सर्वप्रधान कार्य है किंतु मैं करूँ क्या, मेरा मन श्रीकृष्ण से मिलने के लिये व्याकुल हो रहा है। अब मुझे श्रीकृष्ण के बिना देखे चैन नहीं। आप ऐसा आशीर्वाद दीजिये कि मैं अपने प्यारे श्रीकृष्ण को पा सकूँ और आपके चरण-कमलों का सदा स्मरण करता रहूँ। अब तो मैं आज्ञा ही चाहता हूँ।’ प्रभु के प्रेम-पाश में बंधे हुए भारती जी कहने लगे- ‘यदि तुम नहीं मानते हो और जाने के ही लिये तुले हुए हो, तो चलो मैं भी तुम्हारे साथ कुछ दूर तक चलता हूँ।’ यह कहकर भारती जी भी अपना दण्ड-कमण्डलु लेकर साथ चलने के लिये तैयार हो गये। प्रभु अपने गुरुदेव भारती महाराज को आगे करके पश्चिम दिशा की ओर चलने लगे और उनके पीछे चन्द्रशेखर आचार्यरत्न, नित्यानन्द, गदाधर और मुकुन्द आदि भक्त भी चलने लगे। आचार्यरत्न को अपने पीछे आते देखकर प्रभु अत्यन्त ही दीनभाव से उनसे कहने लगे- आचार्य देव! आपने मेरे पीछे सदा से कष्ट ही उठाये हैं। मेरी प्रसन्नता के लिये आपने अपनी इच्छा के विरुद्ध भी बहुत-से कार्य किये हैं, मैं आपके ऋण से जन्म-जन्मान्तरोंपर्यन्त उऋण नहीं हो सकता। आप से मेरी यही प्रार्थना है कि अब आप घर के लिए लौट जायँ।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ पूर्वकाल के बड़े-बड़े़ ऋषियों द्वारा स्वीकार की हुई इस परमात्मनिष्ठा को स्वीकार करके मैं मोक्षदाता श्रीहरि के चरणकमलों की सेवा की द्वारा जिसका कि अन्त पाना अत्यन्त ही दुष्कर है, उस संसाररूपी अन्धकार को भी बात-की-बात में तर जाऊँगा। श्रीमद्भा. 11/23/58