श्रीकृष्णांक
छान्दोग्योपनिषद् और श्रीकृष्ण
छान्दोग्योपनिषद्में वर्णित है कि- तद्धैतद् घोर आंगिरस: कृष्णाय देवकीपुत्रायोक्त्वोवाचाअपिपास एव स बभूव, सोअंतवेलायामेतत्त्रयं प्रतिपद्येताक्षितमस्यच्युतमसि प्राणसँ शितमसीति। छन्दो. प्र. 3 खण्ड 17
अर्थात देवकी पुत्र श्रीकृष्ण के लिये आग्निरस घोर ऋषि ने शिक्षा दी कि जब मनुष्य का अन्त समय आवे तो उसे इन तीन वाक्यों का उच्चारण करना चाहिये- (1) त्वं अक्षितमयि- ईश्वयर ! आप अविनश्वकर हैं (2) त्वं अच्युतमसि- आप एक रस रहने वाले हैं (3) त्वं प्राणसंशित मसि- आप प्राणियों के जीवनदाता हैं। श्रीकृष्ण इस शिक्षा को पाकर अपिपास हो यगे अर्थात उन्होंने समझा कि अब और किसी शिक्षा की उन्हें जरूरत नहीं रही। यहाँ स्वाभाविक रीति से एक शंका होती है और वह यह है कि एक बात अन्त के समय करने के लिये कही गयी थी, फिर और शिक्षाओं से श्रीकृष्ण अपिपास क्यों हो गये ? इस प्रश्न के उत्तर के लिये हमारी दृष्टि एक वेद मन्त्र पर पड़ती है, वह मन्त्र इस प्रकार है- वायुरनिलममृतमथेदं भस्मांतँ शरीरम् । यजु. 40।17
मन्त्र का आशय यह है कि शरीरों में आने-जाने वाला जीव अमर है परन्तु यह शरीर केवल भस्म-पर्यन्ते है। इसलिये उपदेश दिया गया है कि जब इन दोनों के वियोग का समय हो तो हे क्रतो (जीव) बल-प्राप्ति के लिये ओउ्म का स्मरण कर और अपने किये हुए (कर्म) का स्मरण कर। मनुष्य का जीवन दो हिस्सों में बँटा हुआ होता है- (1) एक भाग उस समय तक रहता है जब तक मनुष्य मृत्यु शय्या पर नहीं आता- जीवन के इस हिस्से में मनुष्य को कर्म करने की स्वतन्त्रता होती है (2) दूसरा भाग वह है जिसमें मनुष्य मृत्यु शय्या पर होता है- इस हिस्से में कर्मस्वातन्त्र्य नहीं रहता अपितु पहले हिस्से में किये हुए कर्म इस हिस्से में प्रतिध्वनित होते हैं- अर्थात इस दूसरे हिस्से को पहले हिस्से की चित्र (फोटो) खींचने वाली अवस्था कह सकते हैं। जीवन के पहले भाग में जिस प्रकार के भी कर्म मनुष्य वित्तैशणा में जीवन व्यतीत किया है तो अन्त में, महमूद की तरह, उसे धन के लिये ही रोते हुए, संसार से जाना पड़ेगा। इसी प्रकार पुत्रैशणा और लोकैशणा वालों का अनुमान कर लें, मन्त्र में पहली शिक्षा ओउ्म का स्मरण कर, यह उपदेश रूप में है अर्थात मनुष्यों को यत्न करना चाहिये कि जीवनके पहले हिस्से में ओउ्म (ईश्वमर) का स्मरण और जप करें, जिससे अन्त समय में भी उनके मुख से ओउ्म (ईश्वीर का नाम) निकल सके।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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