जन यह कैसे कहै गुसाई ?
तुम बिनु दीनबंधु, जादवपति, सब फीकी ठकुराई।
अपने से कर-चरन-नैन-मुख अपनी सी बुधि पाई।
काल-कर्म-बस फिरत सकल प्रभु, तेऊ हमरी नाई।
पराधीन, पर बदन निहारत, मानत मूढ़ बड़ाई।
हँसै हँसत, बिलखैं बिलखत हैं, ज्यौं दर्पन मैं झाई।
लिये दियौ चाहैं सब कोऊ, सुनि समरथ जदुराई।
देव सकल व्यापार परस्पर, ज्यौं पसु-दूध-चराई।
तुम बिनु और न कोउ कृपानिधि, पावै पीर पराई।
सूरदास के त्रास हरन कौं कृपानाथ-प्रभुताई।।195।।
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