ज्ञानेश्वरी पृ. 261

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-9
राज विद्याराज गुह्ययोग


मोघाशा मोघकर्माणो मोघज्ञाना विचेतस: ।
राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृतिं मोहिनीं श्रिता: ॥12॥

इसीलिये ऐसे व्यक्तियों का जन्म लेना व्यर्थ ही सिद्ध होता है, वर्षा-ऋतु के अलावा अन्य ऋतुओं में जो मेघ दृष्टिगोचर होते हैं अथवा मृगजल की जो तरंगें उठती हुई दृष्टिगत होती हैं, वे सब दूर से ही देखने भर की होती हैं। यदि उनके समीप जाकर उनकी परीक्षा की जाय तो वे दोनों ही निस्सार और व्यर्थ सिद्ध होते हैं। बालकों के खेलने के लिये मिट्टी के जो घुड़सवार आदि खिलौने बनाये जाते हैं अथवा जादूगरों के द्वारा जो अलंकार इत्यादि बनाये जाते हैं अथवा आकाश में बादलों से निर्मित जो गन्धर्व नगर दिखायी देते हैं, वे सब वास्तव में कुछ न होने पर भी देखने वालों को भासमान होते ही हैं। सरपत सीधा बढ़ता तो रहता है, पर उसमें फल नहीं लगते और उसके काण्ड (तना) भी भीतर से पोले ही होते हैं अथवा बकरी के गले में जो स्तन निकलते हैं, वे भी सिर्फ दिखाऊ ही होते हैं, ठीक इसी प्रकार का मूर्ख व्यक्तियों का जीवन भी होता है। उनके किये हुए कर्म सेमल के फलों की ही भाँति लेन-देन के काम के नहीं होते और सिर्फ धिक्कारने के योग्य होते हैं। इस प्रकार के लोग जो ज्ञान प्राप्त करते हैं, वह बन्दर के द्वारा तोड़े हुए नारियल की भाँति अथवा अन्धे के हाथ लगे हुए मोतियों के सदृश निष्फल होता है। किंबहुना, उनके सीखे हुए शास्त्र छोटी-सी लड़की के हाथ में दिये हुए शस्त्र के समान अथवा अपवित्र मनुष्यों के बीजमन्त्रों के समान केवल निरर्थक सिद्ध होते हैं, इसी प्रकार उनके समस्त ज्ञान-संग्रह और कर्म-संग्रह दोनों निरर्थक ही होते हैं, कारण कि उनके चित्त में स्थिरता का सर्वथा अभाव होता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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