दयानिधि तेरी गति लखि न परै।
धर्म अधर्म, अधर्म धर्म करि, अकरन करन करै।
जय अरु बिजय कर्म कह किन्हौ, ब्रह्म-सराप दिवायौ।
असुर जोनि ता ऊपर दीन्हीं, धर्म उछेद करायौ।
पिता बचन खंडै सो पापी, सोइ प्रहलादहिं कीन्हौ।
निकसे खंभ-बीच तैं नरहरि, ताहि अभय पद दीन्हौ।
निकसे खंभ-बीच तैं नरहरि, ताहि अभय पद दीन्हौ।
दान धर्म बहु दियौ भानु-सुत, सो तुव बिमुख कहायौ।
बेद-बिरुद्ध सकल पांडव-कुल, सो तुम्हरैं मन भायौ।
जज्ञ करत बैरोचन कौ सुत, बेद-बिहित-विधि-कर्मा।
सो छलि बाँधि पताल पठायौ, कौन कृपानिधि, धर्मा?
द्विज-कुल-पतित अजामिल विषयी, गनिका हाथ विकायौ।
सुत-हित नाम लियौ नारायन, सो बैकुंठ पठायौ।
पतिव्रता जालंधर-जुवती, सो पतिव्रत तैं टारी।
दुष्ट पुंस्चली, अधम सो गनिका सुवा पढ़ावत तारी।
मुक्ति-हेत जोगी स्त्रम साधै, असुर विरीधै पावै।
अविगत गति करुनामय तेरी, सूर कहा कहि गावै।।104।।