नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
10. नन्द बाबा-श्रीकृष्ण-जन्म
उस दिन अकस्मात लगा कि हृदय उज्ज्वल-स्निग्ध प्रकाश से परिपूर्ण हो उठा है। उसका कैसे वर्णन करूँ-प्रकाश और आनन्द दोनों जैसे एक हैं, अपार हैं, असीम हैं। अपनी तो विस्मृति ही हो गयी थी; किंतु सहसा वह मूर्ति आविर्भूत हुई उस प्रकाश के मध्य-वही ज्योतिर्मय नवजलधर सुन्दर वर्ण; किंतु इतना सुन्दर, इतना सुकुमार और वह भी शिशु। घुँघराले काले केशों में लहराता मयूरपिच्छ, किञ्चित अरुणाभ कमलदल विशाललोचन, अतिशय अरुण कर, पद, अधर। यह अरुणमणि कण्ठ, मौक्तिकमाल शिशु-वह हँसता, किलकता हृदय में प्रकट हुआ और अंक में आकर बैठ गया। मेरे श्मश्रु में अपनी नन्हीं सुकुमार अँगुलियाँ नचाता हँसने लगा। वह अंक में है या हृदय में? सम्पूर्ण सृष्टि उसी में डूबी-डूबती चली गयी। वह कहाँ है? मेरा अपना शरीर होता तो वह अंक या हृदय में होता। केवल वह-वही-वही नवघनसुन्दर, परम सुकुमार शिशु मन्दस्मित शोभित मुखारविन्द-वही रह गया एकमात्र। उसके श्रीअंग से झरती अनन्त आनन्द-ज्योत्स्ना। मैं कबतक उस प्रकार बैठा रहा, मुझे पता नहीं। पीछे पता लगा कि पत्नी ने ही मुझे हिलाकर सचेत किया। समस्त गोकुल सब नर-नारी आ गये थे गोष्ठ में। सब मेरे सावधान होने पर पता नहीं कितनी अटपटी बातें कह रहे थे। कहीं मनुष्य के शरीर से प्रकाश निकला करता है। प्रकाश तो उस शिशु के शरीर से झर रहा था। गोकुल के मेरे सभी स्नेहीजन श्रद्धालु हैं, परम पवित्र हैं। श्रीनारायण ने सब पर कृपा करके उस दिन अपनी विभूति का सबको दर्शन कराया। सब तो भ्रम में पड़कर मुझे ही माध्यम मानने लगे थे; किंतु वह शिशु-मैंने नेत्र खोला तो लगा कि वह और छोटा, सद्योजात हो गया है और महर के अंक में जा बैठा है। महर लज्जा से लाल हो उठती है, जब मैं उसकी ओर अपलक देखने लगता हूँ। वह उलाहना देती है- 'तुम्हें इस आयु में अब यह रसिकता सूझी है?' |
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