परी पुकार द्वार गृह गृह तै, सुनी सखी इक जोगी आयौ।
पवन सधावन, भवन छुड़ावन, रवन रसाल गोपाल पायौ।।
आसन बाँधि, परम ऊरध चित, बनत न तिनहिं कहा हित ल्यायौ।
कनकवेलि, कामिनि ब्रजबाला जोग अगिनि दहिबे कौ धायौ।।
भवभय हरन, असुर मारन हित, कारन कान्ह मधुपुरी छायौ।
जादव मैं ब्रज एकौ नाही, काहै उलटौ जस बिथरायौ।।
सुथल जु स्याम थाम मैं बैठी, अबलनि प्रति अधिकार जनायौ।
‘सूर बिसारी प्रीति साँवरे, भली चतुरता जगत हँसायौ।।3513।।