भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
जब बहुत काल अभ्यास करते रहने पर भी भगवत्स्वरूप की स्फूर्ति नहीं होती तो साधक बहुत निरुत्साह हो जाता है। उसका उत्साह बनाये रखने के लिये ही स्वाध्याय की आवश्यकता है। बहुत से लोग भिन्न-भिन्न महात्माओं के पास जाकर साधन की बात पूछा करते हैं। उन्हें कोई कुछ साधन बतलाता है और कोई कुछ दूसरा साधन बतला देता है। वे कुछ दिन तक साधन का अवलम्बन करते हैं और उसमें असफल होने पर निरुत्साह हो जाते हैं। उनका हृदय विषादग्रस्त हो जाता है। किन्तु विषाद से कोई लाभ नहीं होता। लाभ तो साधन-मार्ग में चलने से ही होगा। विषाद से शोक-मोह के सिवा और कुछ हाथ नहीं लगता। इसलिये साधक को विषाद नहीं करना चाहिये। जिस समय तुम्हारा साधन पूरा होगा उस समय साध्य अवश्य मिलेगा; उसके लिये उतावले क्यों होते हो? तनिक हिरण्यकशिपु के तप की ओर ध्यान दो। उसके शरीर को पिपीलिकाओं ने छलनी कर दिया था, मांस सर्वथा सूखकर केवल अस्थिचर्म मात्र रह गये थे; तो भी वह निरुत्साह नहीं हुआ। वह कहता है कि ‘काल नित्य है और आत्मा नित्य है; अतः यदि शरीर नष्ट भी हो जाय तो कोई चिन्ता नहीं, हम तपस्या से पीछे नहीं हटेंगे। यह है तपस्या का उत्साह।’ देखो, वे लोग राक्षस थे, किन्तु उनकी धारणा कैसी स्थिर थी। हम लोग दस दिन माला फेरते हैं और कोई आनन्दानुभव न होने के कारण समय और मन्त्र को दोष देने लगते हैं। किन्तु यह हमारी भूल है। हमें दृढ़तापूर्वक अपने साधन पर डटे रहना चाहिये। एक वैश्य व्यापार को अपना सर्वस्व समझता है। व्यापार करने में वह अपनी सर्वस्व रक्षा मानता है और व्यापार न करने में सर्वस्व का नाश समझता है। इसी से वह धन, स्त्री, गृह और देश की उपेक्षा करके विदेश में चला जाता है तथा अपने कारोबार के लिये दिन-रात एक कर देता है। लोग कहते हैं, ‘महाराज, भजन करते हैं तो निद्रा बहुत सताती है।’ किन्तु तनिक स्टेशन मास्टर और खजांचियों से तो पूछो उन्हें कितनी निद्रा आती है? वे जानते हैं कि थोड़ा सा भी प्रमाद होने से हानि होने की सम्भावना है। वे दो-चार रुपये की हानि की आशंका से रातभर जागते रहते हैं। इसी प्रकार तुम्हें भी यदि भजन में ढील होने पर हानि की आशंका होती तो आलस्य कैसे आ सकता था? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज