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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
भगवान का मंगलमय स्वरूप
भगवान में केवल चन्द्रमा का ही उपमान नहीं, कारण भगवान घनश्याम भी हैं। पर यह प्राकृत श्याम नहीं। उनकी श्यामता में महेन्द्र नीलमणि की उपमा दी जाती है जिसमें दीप्तिमत्ता-विशिष्ट विलक्षण नीलिमा है। उस नीलिमा में ऐसी दीप्ति है कि वह अनन्त कोटि चन्द्रों की सम्मिलित दीप्तिमत्ता को तिरस्कृत करती है। इस दिव्य दीप्ति-सम्पन्न भगवन्मूर्तिरूप नील कमल में ऐसी सुकोमलता है कि अनन्त कोटि ब्रह्माण्डान्तर्गत सुकोमलता की मूर्ति श्रीलक्ष्मी भी उनके पाँव को स्पर्श करती हुई सकुचाती हैं कि हमारे हाथों की कठोरता इसके सुकोमल पाँवों का कष्टदायक न हो। अनन्तकोटि कमलों की सारातिसार कोमलता इस कोमलता के पास भी नहीं आने पाती। ऐसे शीतल, ऐसे सुन्दर, ऐसे सुकोमल भगवान इतने गम्भीर हैं कि नवीन नीलधर की गम्भीरता अनन्तकोटिगुणित होकर भी उनका वास्तविक स्वरूप नहीं प्रकट कर सकती। भगवान का केवल मुख ही चन्द्रोपम है ऐसा नहीं, सर्वांग ही चन्द्रोपम है। वर्ण स्वभावतः कृष्ण है, दीप्ति से अकृष्ण है- नीलिमागर्भित दीप्तिमत्ता है। भगवदीय दिव्य मंगलमय विग्रह श्याम होते हुए भी अनन्तकोटि चन्द्र की दीप्ति को तिरस्कृत करने वाला है। महेन्द्र नीलमणि, नूतन नील नीरधर और नील सरोरुह की जो उपमाएँ दी गयी हैं उनसे बहुत से विवक्षित अंश सूचित होते हैं। महेन्द्र नीलमणि से दीप्तिमत्ता, चिक्कणता और दृढ़ता तथा नीलिमा सूचित होती है; नूतन नीलधर से नीलिमा, रस्यता, तापापनोदकता और गम्भीरता सूचित होती है; और नील सरोरुह से नीलिमा, सुकोमलता, शीतलता और सौगन्ध्य सूचित होता है। पर ये महेन्द्र नीलमणि आदि सब प्राकृत है। इनसे यथार्थ बोध नहीं होता। पर बोध के समीप पहुँचने के लिये अन्य कोई उपाय नहीं है। प्राकृत तत्त्वों से ही अप्राकृत की कल्पना कर लेनी है। इन सबसे अनन्तकोटिगुणित ये गुण भगवान में हैं। भगवान को देखकर वृन्दावनवर्ती मयूरवृन्द घनश्याम को श्यामघन जानकर नृत्य करते हैं। भगवान जो वंशी बजाते हैं वह मयूरवृन्दों के लिये मानो मन्द-मन्द मेघगर्जन ही है। पर मेघ दूर होते हैं और यह मेघश्याम बिल्कुल समीप है। परिच्छिन्न होते हुए भी इस मेघ की गम्भीरता ऐसी है कि उनके किसी भी अंग पर किसी के नेत्र पड़ जायें तो वहीं उनकी टकटकी बँध जाय। आगे बढ़कर उनके सब अंगों को देखने की भला किसमें सामर्थ्य? व्रजांगनाएं कहती है कि भगवान के एक-एक रोम के सौन्दर्य को देखने लिये यदि हमारे एक-एक रोम में कोटि-कोटि नेत्र होते तो देख सकतीं और तब कह सकतीं कि यह परिच्छिन्न हैं या अपरिच्छिन्न। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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