विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दतृतीय अध्याय
तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः। हे महाबाहो! गुण और कर्म के विभाग को ‘तत्त्ववित्’-परमतत्त्व परमात्मा की जानकारीवाले महापुरुषों ने देखा और सम्पूर्ण गुण गुणों में बरत रहे हैं, ऐसा मानकर वे गुण और कर्मों के कर्तापन में आसक्त नहीं होते। यहाँ तत्त्व का अर्थ परमतत्त्व परमात्मा है, न कि पाँच या पचीस तत्त्व जैसा कि लोग गणना करते हैं। योगेश्वर श्रीकृष्ण के शब्दों में तत्त्व एकमात्र परमात्मा है, अन्य कोई तत्त्व है ही नहीं। गुणों को पार करके परमतत्त्व परमात्मा में स्थित महापुरुष गुण के अनुसार कर्मों का विभाजन देख पाते हैं। तामसी गुण रहेगा तो उसका कार्य होगा-आलस्य, निद्रा, प्रमाद, कर्म में प्रवृत्त न होने का स्वभाव। राजसी गुण रहेंगे तो आराधना से पीछे हटने का स्वभाव, शौर्य, स्वाभिमान से कर्म होगा और सात्विक गुण कार्यरत होने पर ध्यान, समाधि, अनुभवी उपलब्धि, धारावाहिक चिन्तन, सरलता स्वभाव में होगी। गुण परिवर्तनशील हैं। प्रत्यक्षदर्शी ज्ञानी ही देख पाता है कि गुणों के अनुरूप कर्मों का उत्कर्ष-अपकर्ष होता है। गुण अपना कार्य करा लेते हैं, अर्थात् गुणों में बरतते हैं- ऐसा समझकर वह प्रत्यक्ष द्रष्टा कर्म में आसक्त नहीं होता। किन्तु जिन्होंने गुणों का पार नहीं पाया, जो अभी रास्ते में हैं उन्हें तो कर्म में आसक्त रहता है। इसलिये-
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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