यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 222

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

चतुर्थ अध्याय


दैवमेवापरे यज्ञं योगिनः पर्युपासते।
ब्रह्माग्नावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजुह्वति।।25।।


गतश्लोक में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने परमात्मस्थित महापुरुष के यज्ञ का निरूपण किाय; किन्तु दूसरे योगी जो अभी उस तत्त्व में स्थित नहीं हुए हैं, क्रिया में प्रवेश करने वाले हैं, वे आरम्भ कहाँ से करें? इस पर कहते हैं कि दूसरे योगी ‘दैवम् यज्ञम्’ अर्थात् दैवी सम्पद् को अपने हृदय में बलवती बनाते हैं। जिसके लिये ब्रह्मा का निर्देश था कि इस यज्ञ द्वारा तुम लोग देवताओं की उन्नति करो। ज्यों-ज्यों हृदय-देश में दैवी सम्पद अर्जित होगी, वही तुम्हारी प्रगति होगी और क्रमशः परस्पर उन्नति करके परमश्रेय को प्राप्त करो। दैवी सम्पद् को हृदय-देश में बलवती बनाना प्रवेशिका श्रेणी के योगियों का यज्ञ है।



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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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