यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द
चतुर्थ अध्याय
दैवमेवापरे यज्ञं योगिनः पर्युपासते।
ब्रह्माग्नावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजुह्वति।।25।।
गतश्लोक में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने परमात्मस्थित महापुरुष के यज्ञ का निरूपण किाय; किन्तु दूसरे योगी जो अभी उस तत्त्व में स्थित नहीं हुए हैं, क्रिया में प्रवेश करने वाले हैं, वे आरम्भ कहाँ से करें? इस पर कहते हैं कि दूसरे योगी ‘दैवम् यज्ञम्’ अर्थात् दैवी सम्पद् को अपने हृदय में बलवती बनाते हैं। जिसके लिये ब्रह्मा का निर्देश था कि इस यज्ञ द्वारा तुम लोग देवताओं की उन्नति करो। ज्यों-ज्यों हृदय-देश में दैवी सम्पद अर्जित होगी, वही तुम्हारी प्रगति होगी और क्रमशः परस्पर उन्नति करके परमश्रेय को प्राप्त करो। दैवी सम्पद् को हृदय-देश में बलवती बनाना प्रवेशिका श्रेणी के योगियों का यज्ञ है।
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