यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 259

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

पंचम अध्याय


स्पष्ट है कि ज्ञानयोग में निष्काम कर्मयोग का ही आचरण करना पड़ेगा; क्योंकि क्रिया दोनों क्रिया दोनों में एक ही है-वही यज्ञ की क्रिया, जिसका शुद्ध अर्थ है ‘आराधना’। दोनों मार्गों में अन्तर केवल कर्ता के दृष्टिकोण का है। एक अपनी शक्ति को समझकर हानि-लाभ देखते हुए इसी कर्म में प्रवृत्त होता है और दूसरा निष्काम कर्मयोगी इष्ट पर निर्भर होकर इसी क्रिया में प्रवृत्त होता है। उदाहरणार्थ, एक प्राइवेट पढ़ता है दूसरा नाॅमिनेट। दोनों पाठ्यक्रम एक है, परीक्षा एक है, परीक्षक-निरीक्षक दोनों में एक ही हैं। ठीक इसी प्रकार दोनों के सद्गुरु तत्त्वदर्शी हैं और डिग्री एक ही है। केवल दोनों के पढ़ने का दृष्टिकोण भिन्न है। हाँ, संस्थागत छात्र को सुविधाएँ अधिक रहती हैं।

पीछे श्रीकृष्ण ने कहा कि काम और क्रोध दुर्जय शत्रु हैं, अर्जुन! इन्हें तू मार। अर्जुन को लगा कि यह तो बड़ा कठिन है; किन्तु श्रीकृष्ण ने कहा-नहीं, शरीर से परे इन्द्रियाँ हैं, इन्द्रियों से परे मन है, मन से परे बुद्धि है, बुद्धि से परे तुम्हारा स्वरूप है। तुम वहाँ से प्रेरित हो। इस प्रकार अपनी हस्ती समझकर, अपनी शक्ति को सामने रखकर, स्वावलम्बी होकर कर्म में प्रवृत्त होना ‘ज्ञानयोग’ है। श्रीकृष्ण ने कहा है-चित्त को ध्यानस्थ करते हुए, कर्मों को मुझमें समर्पण करके आशा, ममता और सन्तापरहित होकर युद्ध कर। समर्पण के साथ इष्ट पर निर्भर होकर उसी कर्म में प्रवृत्त होना निष्काम कर्मयोग है। दोनों की क्रिया एक है और परिणाम भी एक है।

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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