यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दपंचम अध्याय
पीछे श्रीकृष्ण ने कहा कि काम और क्रोध दुर्जय शत्रु हैं, अर्जुन! इन्हें तू मार। अर्जुन को लगा कि यह तो बड़ा कठिन है; किन्तु श्रीकृष्ण ने कहा-नहीं, शरीर से परे इन्द्रियाँ हैं, इन्द्रियों से परे मन है, मन से परे बुद्धि है, बुद्धि से परे तुम्हारा स्वरूप है। तुम वहाँ से प्रेरित हो। इस प्रकार अपनी हस्ती समझकर, अपनी शक्ति को सामने रखकर, स्वावलम्बी होकर कर्म में प्रवृत्त होना ‘ज्ञानयोग’ है। श्रीकृष्ण ने कहा है-चित्त को ध्यानस्थ करते हुए, कर्मों को मुझमें समर्पण करके आशा, ममता और सन्तापरहित होकर युद्ध कर। समर्पण के साथ इष्ट पर निर्भर होकर उसी कर्म में प्रवृत्त होना निष्काम कर्मयोग है। दोनों की क्रिया एक है और परिणाम भी एक है। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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