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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द
पंचम अध्याय
नैव किञ्चित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित्।
पश्यन्श्रृण्वन्स्पृशन्जिघ्रन्नश्रन्गच्छन्स्वपन्श्वसन्।।8।।
प्रलपन्विसृजन्गृहृन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन्।।9।।
परमतत्त्व परमात्मा को साक्षात्कारसहित जाननेवाले योगयुक्त पुरुष की यह मनःस्थिति अर्थात् अनुभूति है कि मैं किंचित् मात्र भी कुछ नहीं करता हूँ। यह उसकी कल्पना नहीं, बल्कि यह स्थिति उसने कर्म करके पायी है। यथा ‘युक्तो मन्येत’-अब प्राप्ति के पश्चात् वह सब कुछ देखता हुआ, सुनता हुआ, स्पर्श करता, सूँघता, भोजन करता, गमन करता, सोता, श्वास लेता, बोलता, त्याग करता, ग्रहण करता, आँखों को खोलता और मींचता हुआ भी ‘इन्द्रियाँ अपने अर्थों में बरतती हैं’-ऐसी धारणावाला होता है। परमात्मा से बढ़कर कुछ है ही नहीं और जब उसमें वह स्थित ही है तो उससे बढ़कर किस सुख की कामना से वह किसका दर्शन, स्पर्श इत्यादि करेगा? यदि कोई श्रेष्ठ वस्तु आगे होती तो आसक्ति अवश्य रहती। किन्तु प्राप्ति के बाद अब और आगे जायेगा कहाँ और पीछे त्यागेगा क्या? इसलिये योगयुक्त पुरुष लिप्त नहीं होता। इसी को एक उदाहरण के माध्यम से प्रस्तुत करते हैं-
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