यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दपंचम अध्यायनिष्कर्ष- इस अध्याय के आरम्भ में अर्जुन ने प्रश्न किया कि कभी तो आप निष्काम कर्मयोग की प्रशंसा करते हैं और कभी आप संन्यास-मार्ग से कर्म करने की प्रशंसा करते हैं, अतः दोनों में एक को, जो आपका सुनिश्चित किया हो, परमकल्याणकारी हो, उसे कहिये। श्रीकृष्ण ने बताया-अर्जुन! परमकलयाण तो दोनों में हैं। दोनों में वही निर्धारित यज्ञ की क्रिया ही की जाती है, फिर भी निष्काम कर्मयोग विशेष है। बिना इसे किये सन्यास (शुभाशुभ कर्मों का अन्त) नहीं होता। सन्यास मार्ग नहीं, मंजिल का नाम है। योगयुक्त ही सन्यासी है। योगयुक्त के लक्षण बताये कि वही प्रभु है। वह न करता है, न कुछ कराता है, बल्कि स्वभाव में प्रकृति के दबाव के अनुरूप लोग व्यस्त हैं। जो साक्षात् मुझे जान लेता है वही ज्ञाता है, वही पण्डित है। यज्ञ के परिणाम में लोग मुझे जानते हैं। श्वास-प्रश्वास का जप और यज्ञ-तप जिसमें विलय होते हैं, मैं ही हूँ। यज्ञ के परिणामस्वरूप मेरे को जानकर वे जिस शान्ति को प्राप्त होते हैं, वह भी मैं ही हूँ अर्थात् श्रीकृष्ण-जैसा, महापुरुष-जैसा स्वरूप उस प्राप्तिवाले को भी मिलता है। वह भी ईश्वरों का ईश्वर, आत्मा का भी आत्मस्वरूपमय हो जाता है, उस परमात्मा के साथ एकीभाव पा लेता है (एक होने में जन्म चाहे जितने लगें।)। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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