यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 285

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

पंचम अध्याय

निष्कर्ष-

इस अध्याय के आरम्भ में अर्जुन ने प्रश्न किया कि कभी तो आप निष्काम कर्मयोग की प्रशंसा करते हैं और कभी आप संन्यास-मार्ग से कर्म करने की प्रशंसा करते हैं, अतः दोनों में एक को, जो आपका सुनिश्चित किया हो, परमकल्याणकारी हो, उसे कहिये। श्रीकृष्ण ने बताया-अर्जुन! परमकलयाण तो दोनों में हैं। दोनों में वही निर्धारित यज्ञ की क्रिया ही की जाती है, फिर भी निष्काम कर्मयोग विशेष है। बिना इसे किये सन्यास (शुभाशुभ कर्मों का अन्त) नहीं होता। सन्यास मार्ग नहीं, मंजिल का नाम है। योगयुक्त ही सन्यासी है। योगयुक्त के लक्षण बताये कि वही प्रभु है। वह न करता है, न कुछ कराता है, बल्कि स्वभाव में प्रकृति के दबाव के अनुरूप लोग व्यस्त हैं। जो साक्षात् मुझे जान लेता है वही ज्ञाता है, वही पण्डित है।

यज्ञ के परिणाम में लोग मुझे जानते हैं। श्वास-प्रश्वास का जप और यज्ञ-तप जिसमें विलय होते हैं, मैं ही हूँ। यज्ञ के परिणामस्वरूप मेरे को जानकर वे जिस शान्ति को प्राप्त होते हैं, वह भी मैं ही हूँ अर्थात् श्रीकृष्ण-जैसा, महापुरुष-जैसा स्वरूप उस प्राप्तिवाले को भी मिलता है। वह भी ईश्वरों का ईश्वर, आत्मा का भी आत्मस्वरूपमय हो जाता है, उस परमात्मा के साथ एकीभाव पा लेता है (एक होने में जन्म चाहे जितने लगें।)।

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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