यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दनवम अध्याय
सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिं यान्ति मामिकाम्। अर्जुन! कल्प के विलयकाल में सब मेरी प्रकृति अर्थात् मेरे स्वभाव को प्राप्त होते हैं और कल्प के आदि में मैं उनको बार-बार ‘विसृजामि’-विशेष रूप से सृजन करता हूँ। थे तो वे पहले से किन्तु विकृत थ्ज्ञे, उन्हीं को रचता हूँ। कल्प का तात्पर्य है उत्थानोन्मुख परिवर्तन। आसरी सम्पद् से निकलकर जैसे-जैसे पुरुष दैवी सम्पद में प्रवेश पाता है, यहीं से कल्प का आरम्भ है और जब ईश्वरभाव को प्राप्त हो जाता है, वहीं कल्प का क्षय है। अपना कर्म पूरा करके कल्प भी विलीन हो जाता है। भजन का आरम्भ कल्प का आदि है और भजनकी पराकाष्ठा, जहाँ लक्ष्य विदित होता है, कल्प का अन्त है। जब यह क्षर आत्मा योनियों के कारणभूत राग-द्वेषादि से मुक्ति पाकर अपने शाश्वत स्वरूप में स्थिर हो जाय, इसी को श्रीकृष्ण कहते हैं कि वह मेरी प्रकृति को प्राप्त होता है। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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