यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 466

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

नवम अध्याय

इस प्रकार कल्प दो प्रकार के हैं। एक तो वस्तु का, शरीर और काल का परिवर्तन कल्प है। यह परिवर्तन प्रकृति ही मेरे आभास से करती है। किन्तु इससे महान् कल्प जो आत्मा को निर्मल स्वरूप प्रदान करता है, उसका श्रृंगार महापुरुष करते हैं। वे अचेत भूतों को सचेत करते हैं। भजन का आदि ही इस कल्प का आरम्भ है और भजन की पराकाष्ठा कल्प का अन्त है। जब यह कल्प भवरोग से पूर्ण नीरोग बनाकर शाश्वत ब्रह्म में प्रवेश (स्थिति) दिला देता है, उसे प्रवेशकाल में योगी मेरे रहनी और मेरे स्वरूप को प्राप्त होता है। प्राप्ति के पश्चात् महापुरुष की रहनी ही उसकी प्रकृति है।

धर्मग्रन्थों में कथानक मिलते हैं कि चारों युग बीतने पर ही कल्प पूर्ण होता है, महाप्रलय होता है। प्रायः लोग इसे यथार्थ नहीं समझते। युग का अर्थ है दो। आप अलग हैं, आराध्य अलग है तब तक युगधर्म रहेंगे। गोस्वामी जी ने रामचरितमानस के उत्तरकाण्ड में इसकी चर्चा की है। जब तामसी गुण कार्य करते है, रजोगुण अल्प मात्रा में है, चारों ओर वैर-विरोध है, ऐसा व्यक्ति कलियुगीन है। वह भजन नहीं कर पाता; किन्तु साधन प्रारम्भ होने पर युग परिवर्तन हो जाता है। रजोगुण बढ़ने लगता है, तमोगुण क्षीण हो चलता है, कुछ सत्वगुण भी स्वभाव में आ जाते हैं, हर्ष और भय की दुविधा लगी रहती है तो वही साधक द्वापर की अवस्था में आ जाता है।


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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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