यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दनवम अध्यायइस प्रकार कल्प दो प्रकार के हैं। एक तो वस्तु का, शरीर और काल का परिवर्तन कल्प है। यह परिवर्तन प्रकृति ही मेरे आभास से करती है। किन्तु इससे महान् कल्प जो आत्मा को निर्मल स्वरूप प्रदान करता है, उसका श्रृंगार महापुरुष करते हैं। वे अचेत भूतों को सचेत करते हैं। भजन का आदि ही इस कल्प का आरम्भ है और भजन की पराकाष्ठा कल्प का अन्त है। जब यह कल्प भवरोग से पूर्ण नीरोग बनाकर शाश्वत ब्रह्म में प्रवेश (स्थिति) दिला देता है, उसे प्रवेशकाल में योगी मेरे रहनी और मेरे स्वरूप को प्राप्त होता है। प्राप्ति के पश्चात् महापुरुष की रहनी ही उसकी प्रकृति है। धर्मग्रन्थों में कथानक मिलते हैं कि चारों युग बीतने पर ही कल्प पूर्ण होता है, महाप्रलय होता है। प्रायः लोग इसे यथार्थ नहीं समझते। युग का अर्थ है दो। आप अलग हैं, आराध्य अलग है तब तक युगधर्म रहेंगे। गोस्वामी जी ने रामचरितमानस के उत्तरकाण्ड में इसकी चर्चा की है। जब तामसी गुण कार्य करते है, रजोगुण अल्प मात्रा में है, चारों ओर वैर-विरोध है, ऐसा व्यक्ति कलियुगीन है। वह भजन नहीं कर पाता; किन्तु साधन प्रारम्भ होने पर युग परिवर्तन हो जाता है। रजोगुण बढ़ने लगता है, तमोगुण क्षीण हो चलता है, कुछ सत्वगुण भी स्वभाव में आ जाते हैं, हर्ष और भय की दुविधा लगी रहती है तो वही साधक द्वापर की अवस्था में आ जाता है।
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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