विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दद्वितीय अध्यायअव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते। यह आत्मा अव्यक्त अर्थात् इन्द्रियों का विषय नहीं है। इन्द्रियों के द्वारा इसे समझा नहीं जा सकता। जब तक इन्द्रियों और विषयों का संयोग है, तब तक आज्ञा है तो; किन्तु उसे समझा नहीं जा सकता। वह अचिन्त्य है। जब तक चित्त और चित्त की लहर है, तब तक वह शाश्वत है तो; किन्तु हमारे दर्शन, उपभोग और प्रवेश के लिये नहीं है। अतः चित्त का निरोध करें। पीछे श्रीकृष्ण बता आये हैं कि असत् वस्तु का अस्तित्व नहीं है और सत् का तीनों काल में अभाव नहीं है। वह सत है आत्मा। आत्मा ही अपरिवर्तनशील, शाश्वत, सनातन और अव्यक्त है। तत्त्वदर्शियों ने आत्मा को इन विशेष गुणधर्मों से युक्त देखा। न दस भाषाओं ने ज्ञाता ने देखा, न किसी समृद्धिशाली ने देखा, बल्कि तत्त्वदर्शियों ने देखा। श्रीकृष्ण ने आगे बताया कि तत्त्व है परमात्मा। मन के निरोधकाल में साधक उसका दर्शन और उसमें प्रवेश पाता है। प्राप्तिकाल में भगवान मिलते हैं और दूसरे ही क्षण वह अपनी आत्मा को ईश्वरीय गुणधर्मों से विभूषित देखता है। वह देखता है कि आत्मा ही सत्य, सनातन और परिपूर्ण है। यह आत्मा अचिन्त्य है। यह विकाररहित अर्थात् न बदलनेवाला कहा जाता है। अतः अर्जुन! आत्मा को ऐसा जानकर तू शोक करने योग्य नहीं है। अब श्रीकृष्ण अर्जुन के विचारों में विरोधाभास दिखाते हैं, जो सामान्य तर्क है- |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
सम्बंधित लेख
अध्याय | अध्याय का नाम | पृष्ठ सं. |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज