यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 64

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

द्वितीय अध्याय

अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते।
तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि।।25।।

यह आत्मा अव्यक्त अर्थात् इन्द्रियों का विषय नहीं है। इन्द्रियों के द्वारा इसे समझा नहीं जा सकता। जब तक इन्द्रियों और विषयों का संयोग है, तब तक आज्ञा है तो; किन्तु उसे समझा नहीं जा सकता। वह अचिन्त्य है। जब तक चित्त और चित्त की लहर है, तब तक वह शाश्वत है तो; किन्तु हमारे दर्शन, उपभोग और प्रवेश के लिये नहीं है। अतः चित्त का निरोध करें।

पीछे श्रीकृष्ण बता आये हैं कि असत् वस्तु का अस्तित्व नहीं है और सत् का तीनों काल में अभाव नहीं है। वह सत है आत्मा। आत्मा ही अपरिवर्तनशील, शाश्वत, सनातन और अव्यक्त है। तत्त्वदर्शियों ने आत्मा को इन विशेष गुणधर्मों से युक्त देखा। न दस भाषाओं ने ज्ञाता ने देखा, न किसी समृद्धिशाली ने देखा, बल्कि तत्त्वदर्शियों ने देखा। श्रीकृष्ण ने आगे बताया कि तत्त्व है परमात्मा। मन के निरोधकाल में साधक उसका दर्शन और उसमें प्रवेश पाता है। प्राप्तिकाल में भगवान मिलते हैं और दूसरे ही क्षण वह अपनी आत्मा को ईश्वरीय गुणधर्मों से विभूषित देखता है। वह देखता है कि आत्मा ही सत्य, सनातन और परिपूर्ण है। यह आत्मा अचिन्त्य है। यह विकाररहित अर्थात् न बदलनेवाला कहा जाता है। अतः अर्जुन! आत्मा को ऐसा जानकर तू शोक करने योग्य नहीं है। अब श्रीकृष्ण अर्जुन के विचारों में विरोधाभास दिखाते हैं, जो सामान्य तर्क है-

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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