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सत्ताईसवाँ अध्याय
महाभारत का युद्ध
भारत संतान के इन दोनों वंशों में मेल कराने की कोई युक्ति बाकी नहीं रही। साम, दाम प्रत्येक नीति काम में लाई गई पर किसी प्रकार भी अन्त भला नहीं निकला, तब अपने बाहुबल से न्याय प्राप्त करना स्थिर किया गया। सत्य है जब दिन बुरे आते हैं तो बुद्धि विपरीत हो जाती है।[1] भले और बुरे का ज्ञान नहीं रहता। बुद्धि पर परदा पड़ जाता है, और ऐसे ही अवसर पर कहा जाता है कि भाग्य बड़ा प्रबल है। कर्मो की गति के सामने मानुषी युक्तियाँ व्यर्थ हो जाती हैं। महाभारत की लड़ाई क्या थी? आर्य जाति के बुरे कर्मो का दण्ड था। राजा और प्रजा के एकत्रित पाप मानो मनुष्य रूप धारण कर कुरुक्षेत्र में इसलिए इकट्ठे हुए थे कि आर्यावर्त की विद्या, कला और कौशल में जो कुछ अच्छा हो उसे मिट्टी में मिला दिया जाये। ऐसा जान पड़ता था मानो अब आर्य जाति का अन्तकाल आ पहुँचा। इस बात पर सहसा विश्वास नहीं होता कि भीष्म और युधिष्ठिर, अर्जुन और द्रोण युद्धक्षेत्र में खड़े होकर एक-दूसरे से लड़ने को तैयार होंगे और गुरु तथा शिष्य अपने-अपने पद और नियम का विचार रखकर भी प्राचीन आर्यावर्त की श्रेष्ठता की अन्तिम झलक दिखाकर मानो उसे वही सफल करने के लिए इकट्ठे होंगे। यह कौन जानता था कि महाराज शान्तनु के बाद तीसरी पीढ़ी में उसके वंश वाले यों ही युवावस्था की उमंग अपने बल के परीक्षार्थ सारे आर्यावर्त को मिट्टी में मिला देंगे और अपने हाथ से अपनी जाति को उन्नति के शिखर से उतारकर अवनति के गड्ढे में डाल देंगे। हाय! इस आपस की लड़ाई ने भारत को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। महाभारत की लड़ाई में जिस तरीके से दोनों सेनाएँ सुसज्जित की गई, सैनिकों ने जो वीर भाव दिखलाए, जिस रीति से सेना खड़ी की गई और उनसे धावा कराया गया, यह सब वृत्तान्त पढ़कर एक दीर्घ श्वास लेना पड़ता है। माना कि इस वर्णन में 95 प्रतिशत कविकृतित्व है पर इसे घटाकर जो 5 प्रतिशत शेष बच जाता है वह भी हमें आठ-आठ आँसू रुलाने के लिए बहुत है।
मनुष्य का दैहिक बल, सेना की गिनती अथवा ऐसी ही और बातों में चाहे कितनी कल्पना क्यों न खर्च की जाय पर संसार में न कोई ऐसा होमर जन्मा और न वर्जिल जिसने समरविद्या से अनभिज्ञ या एक कायर जाति के लिए इलियड और ऑडिसी लिख डाली हो। होमर और वर्जिल की कविता से यूनानियों और रोमियों की वीरता और युद्ध तथा शस्त्रविद्या का भली-भाँति परिचय मिलता है। वैसे ही आर्य जाति को युद्धविद्या में जो निपुणता प्राप्त थी वह महाभारत से अच्छी तरह प्रकट होती है। कवि कृतित्व के लिए जो अपवाद रखना हो वह रख लो, तब भी जो कुछ शेष बज जाता है वह नेत्रों के सामने एक विचित्र दृश्य खड़ा कर देता है। यह सच है कि उन वीर आर्यों के उत्तराधिकारी अब उस भाषा का भी पूरा ज्ञान नहीं रखते जिसमें ये घटनाएँ वर्णित हैं। इनके लिए इस युद्ध का वर्णन ऐसा है जैसे अँगरेजी भाषा से एक अनभिज्ञ पुरुष के लिए मिल्टन का पेरेडाइज़ लॉस्ट।[2]
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