श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
पंद्रहवाँ अध्याय
क्षेत्रध्याये क्षेत्रक्षेत्रज्ञभूतयोः प्रकृतिपुरुषयोः स्वरूपं विशोध्य विशुद्धस्य अपरिच्छिन्नज्ञानैकाकारस्य एव पुरुषस्य प्राकृतगुणसंगप्रवाह निमित्तो देवाद्याकारपरिणतप्रकृति सम्बन्धः अनादिः इत्युक्तम्।
तेरहवें अध्याय में क्षेत्र और क्षेत्रज्ञरूप प्रकृति और पुरुष के स्वरूप का स्पष्टीकरण करके यह कहा गया है कि जो एकमात्र अपरिच्छिन्न ज्ञानस्वरूप ही है, उस विशुद्धपुरुष का प्राकृतगुणसंग-प्रवाह के कारण जो देवादि के आकार में परिणत हुई प्रकृति से सम्बन्ध है, वह अनादि है।
अनन्तरे च अध्याये पुरुषस्य कार्यकारणोभयावस्थप्रकृतिसम्बन्धो गुणसंगमूलो भगवता एव कृतः इति उक्त्वा गुणसंगप्रकारं सविस्तरं प्रतिपाद्य गुणसंगनिवृत्तिपूर्वकात्मयाथात्म्यावाप्तिः च भगवद्भक्तिमूला इति उक्तम्।
तदनन्तर चौदहवें अध्याय में कार्य और कारण दोनों अवस्थाओं में स्थित प्रकृति के साथ पुरुष का गुणसंगमूलक सम्बन्ध भगवान् का ही किया हुआ है, यह कहकर तथा गुणों के संग का प्रकार विस्तार पूर्वक बतलाकर यह बात कही गयी कि गुणों के संग की निवृत्तिपूर्वक आत्मा के यथार्थ स्वरूप की प्राप्ति भी भगवान् की भक्ति से ही होती है।
इदानीं भजनीयस्य भगवतः क्षराक्षरात्मकबद्धमुक्तविभूतियुक्तस्य विभूतिभूतात् क्षराक्षरपुरुषद्वयात् निखिलहेयप्रत्यनीककल्याणैकतानतया अत्यन्तोत्कर्षरूपेण विसजाती यस्य पुरुषोत्तमत्वं च वक्तुम् आरभते।
अब इस पंद्रहवें अध्याय में, क्षर और अक्षररूप बद्ध और मुक्त जीव जिन भगवान् की विभूतियाँ हैं और भजन करने योग्य जो भगवान् अखिल हेय गुणों के विरोधी केवल कल्याणमय गुणों से युक्त होने के कारण अपने विभूतिरूप क्षर और अक्षर- इन दोनों पुरुषों से अत्यन्त श्रेष्ठ हैं, अतएव इन दोनों से विलक्षण हैं, उन भगवान् के पुरुषोत्तमत्व का वर्णन आरम्भ किया जाता है।
तत्र तावद् असंगरूपशस्त्रच्छिन्न बन्धाम् अक्षराख्यविभूतिं च वक्तुं छेद्यरूपं बन्धाकारेण विततम् अचित्परिणामविशेषम् अश्वत्थवृक्षाकारं कल्पयन् श्रीभगवानुवाच-
वहाँ, पहले असंगरूप शस्त्र के द्वारा जिसका बन्धन काटा जा चुका है, ऐसे अक्षररूप विभूति का वर्णन करने के लिये बन्धाकार से विस्तृत, छेदन करने योग्य अचेतन वस्तु के परिणाम विशेष जगत् की अश्वत्थ वृक्ष के रूप में कल्पना करके श्रीभगवान् कहते हैं-
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