श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती पृ. 138

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श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
चतुर्थ अध्याय

सारार्थ वर्षिणी प्रकाशिका वृत्ति-

श्रीभगवान ही विश्व के स्रष्टा एवं कर्ता हैं। इस सिद्धान्त के अनुसार वर्ण और वर्णधर्म के स्रष्टा तथा कर्ता वे ही हैं। जीव नित्य कृष्णदास है। भगवान् ने उसे स्वतन्त्रता रूपी अमूल्य सम्पत्ति दी है, किन्तु इस स्वतन्त्रता का अपव्यवहार कर ज्योंही जीव कृष्ण सेवा का परित्याग करता है, त्योंही भगवन्माया उसके स्वरूप को स्थूल और लिंग शरीर से आच्छादितकर संसार चक्र में फेंक देती है। श्रीभगवान् अहैतुक कृपालु होने के कारण ऐसे जीवों के उद्धार के लिए माया-शक्ति द्वारा कर्मयोग की सृष्टि करते हैं। तथापि वे अव्यय और अकर्ता के रूप में चित्-शक्ति के साथ नित्य विलास-परायण होते हैं।

चारों वर्ण और उनके वर्णविभाग के सम्बन्ध में गीता[1]एवं श्रीमद्भागवत में[2]तथा [3] श्लोक द्रष्टव्य हैं।।13।।

न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा।
इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते॥14॥
मुझ पर किसी कर्म का प्रभाव नहीं पड़ता, न ही मैं कर्मफल की कामना करता हूँ। जो मेरे सम्बन्ध में इस सत्य को जानता है, वह कभी भी कर्मों के पाश में नहीं बँधता।

भावानुवाद- यदि कहो कि यह सब तो ठीक है, किन्तु अभी तो आप क्षत्रियकुल में अवतीर्ण हुए हैं और प्रतिदिन क्षत्रियोचित कर्म भी करते हैं, तब मैं आपको किस प्रकार अकर्ता मान लूँ, तो इसके उत्तर में श्रीकृष्ण कहते हैं-‘न माम्’ इत्यादि अर्थात् ये कर्म मुझे जीव के समान लिप्त नहीं करते। जिस प्रकार जीव की कर्मफल में अर्थात् स्वर्गादि की स्पृहा रहती है, मुझे वैसी स्पृहा भी नहीं है। परमेश्वर होने के कारण मैं स्वानन्दपूर्ण हूँ, तथापि लोक प्रवर्तन के लिए ही मैं कर्मादि करता हूँ। जो मुझे इस प्रकार से नहीं जानते हैं, वे कर्मों में बँध जाते हैं।।14।।

सारार्थ वर्षिणी प्रकाशिका वृत्ति-

भगवान सच्चिदानन्दपूर्ण तत्त्व हैं, जीव अणुचित् तत्त्व है। भगवान् षडैश्वर्यपूर्ण हैं और सेवा-विमुख जीव ऐश्वर्यशून्य है। भगवान् मायाधीश हैं और जीव माया के वशीभूत होने योग्य है। दोनों में भेद है। जीव किसी भी अवस्था में ब्रह्म या भगवान् नहीं हो सकता, किन्तु जब वह भगवान को सर्वतन्त्र-स्वतन्त्र, अव्यय और निस्पृह जानकर भगवत्-भक्ति का अनुशीलन करता है, तब वह कर्मबन्धन से छुटकारा पाकर भगवान् की सेवा को प्राप्त करता है, जो उसका नित्य-स्वरूपगत धर्म है।

“जीव के अदृष्टवशतः मैंने जो कर्मतत्त्व सृष्ट किया है, वह मुझे नहीं लिप्त कर सकता है। कर्मफल में भी मेरी स्पृहा नहीं है, क्योंकि मैं षडैश्वर्यपूर्ण भगवान् हूँ, अतः ये अतितुच्छ कर्मफल मेरे लिए नितान्त अकिञ्चित्कर हैं। जीवों के कर्ममार्ग और मेरी स्वतन्त्रता का विचार करते हूए, जो मेरे अव्यय तत्त्व से अवगत हो सकते हैं, वे कभी भी कर्म से बद्ध नहीं होते हैं। वे शुद्ध भक्ति का आचरणकर मुझे ही प्राप्त करते हैं।”-श्रीभक्तिविनोद ठाकुर।।14।।

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

  1. 18/41-44
  2. 7/11/21-24
  3. 11/17/16-19

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श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
अध्याय नाम पृष्ठ संख्या
पहला सैन्यदर्शन 1
दूसरा सांख्यायोग 28
तीसरा कर्मयोग 89
चौथा ज्ञानयोग 123
पाँचवाँ कर्मसंन्यासयोग 159
छठा ध्यानयोग 159
सातवाँ विज्ञानयोग 207
आठवाँ तारकब्रह्मयोग 236
नवाँ राजगुह्मयोग 254
दसवाँ विभूतियोग 303
ग्यारहवाँ विश्वरूपदर्शनयोग 332
बारहवाँ भक्तियोग 368
तेरहवाँ प्रकृति-पुरूष-विभागयोग 397
चौदहवाँ गुणत्रयविभागयोग 429
पन्द्रहवाँ पुरूषोत्तमयोग 453
सोलहवाँ दैवासुरसम्पदयोग 453
सत्रहवाँ श्रद्धात्रयविभागयोग 485
अठारहवाँ मोक्षयोग 501

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