श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
सप्तम अध्याय
यहाँ ‘असंशय’ और ‘समग्र’- इन दो पदों से अपने निर्विशेष ब्रह्म की प्राप्ति में रहने वाले ‘सशय’ तथा उस स्वरूप की उपलब्धि की असमग्रता को इंगित किया है, जैसा कि परवर्ती अध्याय [1] में भी कहा जाएगा-“क्लेशोऽधिकतरस्तेषाम् अव्यक्तासक्तचेतसाम्। अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं देहवद्भिरवाप्यते।।” अर्थात् जो निर्गुण् ब्रह्म में चित्त समाहित करते हैं, उन्हें अधिक कष्ट होता है, देहाभिमानी जीव अत्यन्त कष्टपूर्वक उस अव्यक्त भाव को प्राप्त होता है। और भी, ज्ञानियों को उपास्य ब्रह्म भी मुझ परम महान के महिमास्वरूप ही है, जैसा कि मैंने मत्स्यावतार में राजा सत्यव्रत के प्रति कहा है-“मेरे उपदेश से तुम अपने हृदय में परब्रह्म से प्रकाशित मेरी महिमा से भी अवगत होओगे।”[2] गीता[3] में भी कहा गया है-“मैं ही ब्रह्म का आश्रय हूँ।” अतएव मेरे श्रीकृष्ण स्वरूप के ज्ञान की अपेक्षा निर्विशेष ब्रह्मज्ञान असमग्र अर्थात् असम्पूर्ण है।।1।।
सारार्थ वर्षिणी प्रकाशिका वृत्ति- “हे पार्थ! प्रथम छह अध्यायों में अन्तःकरण को शुद्ध करने वाले निष्काम कर्मयोग की अपेक्षा करने वाले मोक्षदायी ज्ञान और योग (अष्टांग) के सम्बन्ध में बताया, दूसरे छह अध्यायों में भक्तियोग के सम्बन्ध में बता रहा हूँ, श्रवण करो। मुझमें आसक्तचित्त होकर तथा मेरे आश्रितयोग (भक्तियोग का) अभ्यास करने से मत्सम्बन्धी समग्र ज्ञान प्राप्त करोगे-इसमें कुछ भी सन्देह नहीं है। ब्रह्मज्ञानरूप जो ज्ञान है, वह समग्र नहीं है, क्योंकि वह ‘सविशेष’ ज्ञान नही है। जड़ीय-विशेष का परित्यागकर जो एक निर्विशेष चिन्ता प्राप्त की जाती है, उसमें ही निर्विशेष चिन्ता के विषयस्वरूप मेरा निर्विशेष आविर्भावरूप ब्रह्म उदित होता है। वह निर्गुण नहीं है, क्योंकि वह देह आदि के अतिरिक्त जो सात्त्विक ज्ञान है, उतना ही है। भक्ति निर्गुण वृत्तिविशेष है; भक्ति के अवलम्बन से ही निर्गुणस्वरूप मैं, जीव के निर्गुण नेत्रों से परिलक्षित होता हूँ।”-श्रीभक्तिविनोद ठाकुर।।1।।
ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषतः।
यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यत् ज्ञातव्यमवशिष्यते॥2॥
अब मैं तुमसे पूर्णरूप से व्यावहारिक तथा दिव्य ज्ञान कहूँगा। इसे जान लेने पर तुम्हें जानने के लिए और कुछ भी शेष नहीं रहेगा।
भावानुवाद-मेरी भक्ति की आसक्ति भूमिका से पूर्व मेरा ज्ञान ऐश्वर्यमय होता है और बाद में विज्ञान अर्थात् माधुर्य का ही अनुभव होता है। तुम उन दोनों को श्रवण करो, जिससे और कुछ भी तुम्हारे लिए जानने योग्य शेष नहीं रह जाएगा। मेरा निर्विशेष ब्रह्मज्ञान और विज्ञान भी इसके अन्तर्भूत है।।2।।
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