श्रीमद्भगवद्गीता -विश्वनाथ चक्रवर्त्ती
नवम अध्याय
ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकंविशालंक्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति।
एवं त्रयीधर्ममनुप्रपन्नागतागतं कामकामा लभन्ते।।21।।
इस प्रकार जब वे (उपासक) विस्तृत स्वर्गिक इन्द्रियसुख को भोग लेते हैं और उनके पुण्यकर्मों के फल क्षीण हो जाते हैं तो वे मृत्युलोक में पुनः लौट आते हैं। इस प्रकार जो तीनों वेदों के सिद्धान्तों में दृढ़ रहकर इन्द्रियसुख की गवेषणा करते हैं, उन्हें जन्म-मृत्यु का चक्र ही मिल पाता है।
भावानुवाद - ‘गतागतं’ का तात्पर्य है- जन्म-मृत्यु।।21।।
सारार्थ वर्षिणी प्रकाशिका वृत्ति- पूर्व श्लोक में वर्णित भगवत्-विमुख कामकामी व्यक्ति गण स्वर्गादि के सुखों को भोगकर पुनः संसार में पतित होते हैं तथा पुनः पुनः जन्म-कर्म फलप्रद गति को प्राप्त होते हैं। श्रीमद्भागवत में भी इसकी पुष्टि की गई है-
‘स चापि भगवद्धर्मात् काममूढ़ः पराङ्मुखः।
यजते क्रतुभिर्देवान् पितृंश्च श्रद्धायान्वितः।।’[1]
अर्थात्, वे व्यक्ति भगवदाराधना रूप आत्म धर्म (सेवा) से विमुख तथा काममूढ़ होकर कर्म मार्ग में श्रद्धा युक्त होकर विविध यज्ञों के द्वारा प्राकृत देवता और पितृ-पुरुषों की उपासना करते हैं।
‘कर्मवल्लीमवलम्ब्य तत आपदः कथञ्चन्नरकाद्विमुक्तः पुनरप्येवं संसाराध्वनि वत्र्तमानो नरलोकसार्थमुपयाति एवमुपरि गतोऽपि।।’[2]
अर्थात्, इस प्रकार से प्राणिगण कर्मवल्ली का आश्रय ग्रहण कर स्वर्ग प्राप्त करते हैं एवं नरक रूप आपद से थोड़ा विमुक्त अवश्य होते हैं, किन्तु पुण्य के क्षय होने पर उन्हें भी पुनः मर्त्यलोक में प्रवेश करना पड़ता है।
‘तावत् स मोदते स्वर्गे यावत् पुण्यं समाप्यते।
क्षीणपुण्यः पतत्यर्वागनिच्छन् कालचालितः।।’[3]
अर्थात्, जब तक भोग के द्वारा पुण्य की समाप्ति नहीं होती है, तब तक पुरुष स्वर्ग के सुख का भोग करते हैं, अनन्तर पुण्य क्षय होने पर इच्छा नहीं रहने पर भी काल द्वारा चालित होकर अधःपतित होते हैं।।21।।
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