श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
72. अनिरुद्ध बन्दी
अनिरुद्ध को प्रसन्न रखने का उषा सच्चे हृदय से प्रयत्न करती रहती थी। उन्हें कोई असुविधा न हो यह प्रबंध प्रबन्ध उसने कर दिया था। उसकी एक ही प्रार्थना थी- 'वे अन्तःपुर में बाहर न जायँ। अनिरुद्ध का मन भी उषा की सेवा से संतुष्ट था। उन्हें पता ही नहीं लगा कि उनको द्वारिका से यहाँ आये चार वर्ष बीत चुके। उनकी प्रसन्नता, सुख का नवीन-नवीन उपाय उषा करती रही। उसे भय था कि उसके ये प्राणधन कहीं पितृगृह को स्मरण करने लगे तो वह असहाय हो उठेगी। उसके पिता क्या करेंगे यह समझ पाना कठिन था और जो कुछ किया जा चुका था वह भले भावावेश में हुआ, दो युवा कन्याओं के बचपन से हुआ, किन्तु अब तो उसके साथ जीवन का प्रश्न सम्मिलित था। कन्या का कौमार्य उसके शरीर में की एक कान्ति बनाये रखता है। वह जब विवाहिता होकर पतिगृह पहुँचती है तो बहुत शीघ्रता से उसके शरीर में अनेक परिवर्तन होते हैं। ये परिवर्तन उषा के शरीर में भी होने ही थे और इन्हें छिपाया नहीं जा सकता था। उस दिन अपने भवन पर लगा ध्वज-दण्ड टूटा देखकर वाणासुर प्रसन्न हो रहा था। इतने में उसकी कन्या के अन्तःपुर में रक्षक एक साथ आकर हाथ जोड़कर उसके सम्मुख खड़े हो गये। वाणासुर ने उनके आने का कारण पूछा तो बहुत विनम्र होकर बोले- 'हमारा अपराध क्षमा हो। ठीक क्या बात है, हमें भी पता नहीं है क्योंकि आपकी पुत्री के अन्तःपुर में हम जा नहीं सकते। हमारी अत्यन्त सावधानी के पश्चात भी कुछ हुआ है वहाँ यह हमारा अनुमान है। यद्यपि हमारी जानकारी में वहाँ कोई पुरुष नहीं गया किन्तु आपकी पुत्री के शरीर एवं चेष्टा में कौमारभङ्ग के लक्षण दीखते हैं और यह आपके उज्ज्वल कुल के लिए कलंक की बात हो सकती है। किसी भी पिता को अपनी पुत्री के संबंध में ऐसी बात सुनकर कितना दुःख होगा, यह समझा जा सकता है। कन्यान्तःपुर से सेवक बिना पुष्ट कारण के अपने स्वामी के सम्मुख ऐसी बात कहने का साहस नहीं करते यह भी वाणासुर समझ गया। वह उसी समय उठा और सीधे पुत्री के अन्तःपुर में पहुँचा। वाणासुर ने जो कुछ देखा, उससे वह चकित रह गया। त्रिभुवन-सुन्दर कमल लोचन, नवधनवर्ण युवा पुरुष उसकी पुत्री के सम्मुख बैठा पासे खेलने में लगा था और उसके कण्ठ में मोटी मधु-मालती पुष्पों की वनमाला थी। उसकी भुजाओं में इन्हीं पुष्पों की मालाएँ लिपटी थीं और इन मालाओं के पुष्पों पर स्थान-स्थान पर कुंकुम लगा था- वह कुंकुम जो युवापुरुष की माला पर पत्नी के वक्ष से आलिंगन के समय लग जाया करता है। 'पकड़ लो इसे।' वाणासुर ने क्रोध से गर्जना करते हुए साथ आये अन्तःपुर के उन राक्षसों को आज्ञा दी जो कुछ पीछे खड़े हो गये थे। उषा भयभीत होकर एक ओर कक्ष के कोने में दुबक गयी, किन्तु अनिरुद्ध न हिचके, न भयभीत हुए। उन्होंने एक मोटा डण्डा उठा लिया और कक्ष से प्रांगण में निकल आये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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