सँदेसनि क्यौ निघटति दिन राति ?
कबहुँक स्याम कमल दल लोचन ब्रज मिलिहै उहि भाँति।।
खजरीट मृग मीन मधुप मिलि उपमा कौ अकुलात।
सहस भाँति अर्पित कीन्है सब, एकौ चित न सुहात।।
बार बार मैं बरज्यौ ग्वालिनि, अपने मारग जात।
'सूरदास' प्रभु संतत हित तै, कहे सुनत नहिं बात।।3773।।