हमरी सुरति लेत नहिं माधौ।
तुम अलि सब स्वारथ के गाहक, नेह न जानत आधौ।।
निसि लौ कोष अभ्यंतर जो हित कहौ सो थोरी।
भ्रमत भोर सुख और सुमन सँग, कमल देत नहिं कोरी।।
राका रास मास रितु जेती रजनि प्रीति नहि थाही।
वैस-सधि-सुग्व तज्यौ ‘सूर’ हरि, गए मधुपुरी माही।।3848।।