हरि जू वै सुख बहुरि कहाँ।
जदपि नैन निरखत वह मूरति, फिरि मन जात तहाँ।।
मुख मुरली सिर मोर पखावा, गर घुघचिनि की हार।
आगै धेनु रेनु तन मडित, तिरछी चितवनि चार।।
राति दिवस सब सखा लिए सँग, हँसि मिलि खेलत खात।
‘सूरदास’ प्रभु इत उत चितवत, कहि न सकत कछु बात।। 4298।।