श्रीकृष्णांक
रासलीला
यहाँ अनिन्दित-धर्म और सौहार्द दोनों ही है और जो आत्माराम पुरुष भजन करने वालों को भी नहीं भजते, वे सर्वश्रेष्ठ होते हैं। भजन करने पर भी मैं नहीं भजता, क्योंकि ऐसा करने से निरन्तर मेरा चिन्तन बना रहेगा। मैं जो अन्तर्धान हो गया था, वह तुम लोगों का अनुराग बढ़ाने के लिये ही हुआ था। मैं तुम्हारे सामने नहीं आया, यह सत्य है परन्तु छिपकर भी मैं तुम लोगों को ही भज रहा था, मुझे दोष मत देना।’ श्री भगवान की यह रासलीला अपने साथ अपनी ही लीला है। श्रीमद्भागवत में कहा है कि ‘बालक जैसे अपने प्रतिविम्ब को लेकर क्रीड़ा करता है वैसे ही श्री भगवान रमापति ने हास्य आलिंगनादि द्वारा व्रज सुन्दरियों के साथ खेल किया था। भगवान ने आत्माराम होकर भी अपने अनेक रूप करके प्रत्येक गोपी के साथ पृथक-पृथक रह कर क्रीड़ा की। यह खेल ईश्वर ही कर सकते हैं, कोई भी मनुष्य इसका अनुकरण कदापि नहीं कर सकता। जो इस लीला का स्थूल में अभिनय करना चाहते हैं वह स्वयं भी नष्ट होते हैं और दूसरों को भी नष्ट करते हैं। रासलीला में तो देखा जाता है कि व्रजवासियों को भी अपनी स्त्रियों पर सन्देह नहीं हुआ था, श्री कृष्ण से भी उन्होंने असूया नहीं की थी। श्रीकृष्ण की माया से मुग्ध होकर उन सबों ने देखा था कि हमारी स्त्रियाँ हमारे पास ही सोयी हुई है। रासलीला मदनोद्दीपक नहीं है, वह मदनरूप हृद्रोग की नाश करने वाली है कंसाहारी, हे त्रिपुरारी, गिरिधारी, घनश्याम हरे !
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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