खेलौ जाइ स्याम संग राधा।
यह सुनि कुँवरि हरष मन कीन्हौं, मिटि गई अंतर-बाधा।।
जननी निरखि चकित रही ठाढ़ी, दंपति रूप-अगाधा।
देखति भाव दुहुँनि कौ सोई, जो चित करि अवराधा।।
संग खेलत दोउ झगरन लागे, सोभा बढ़ी अवाधा।
मनहुँ तड़ित घन, इंदु तरनि, ह्वै बाल करत रस-साधा।।
निरखत बिधि भ्रमि भूलि परयौ तब, मन-मन करत समाधा।
सूरदास प्रभु और रच्यौ बिधि, सोच भयो तन दाधा।।705।।