गए स्याम तिहिं ग्वालिनि कैं घर।
देख्यो द्वार नहीं कोउ, इत-उत चितै, चले तब भीतर।
हरि आवत गोपी जब जान्यौ, आपुन रहो छपाइ।
सूनैं सदन मथनियाँ कै ढिग, बैठि रहे अरगाइ।
माखन भरी कमोरी देखत, लै-लै लागे खान।
चितै रहे मनि-खँभ-छाहँ-तन, तासौं करत सयान।
प्रथम आजु मैं चोरी आयौ, भलौ बन्यौ है संग।
आपु खात, प्रतिबिंब खवावत, गिरत कहत, का रंग?
जौ चाहौ सब देउँ कमोरी, अति मोठौ कत डारत।
तुमहिं देति मैं अति सुख पायौ, तुम जिय कहा बिचारत?
सुनि-सुनि बात स्याम के मुख की, उमँगि हँसी ब्रजानारी।
सूरदास प्रभु निरखि ग्वालि-मुख तब भजि चले मुरारी।।265।।