गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
9.विभूति और सिद्धांत
क्योंकि तीन गुणों के मर्त्य ताने-बाने या उनकी उलझी हुई जटिलता में नहीं बल्कि इस महत्तर आध्यात्मिक प्रकृति में निवास करते हुए मनुष्य ज्ञान, प्रेम और संकल्प, तथा भगवान् के प्रति अपनी संपूर्ण सत्ता के आत्म-दान के द्वारा उनके साथ एक होकर, निःसदेह, निरपेक्ष परात्परता की और उठने में और साथ ही जगत् पर कार्य करने में भी समर्थ होता है, पहले की तरह अज्ञान में नहीं वरन् परम देव के साथ व्यक्ति के यथार्थ संबंध से, आत्मा के सत्य में, अमरत्व में कृतार्थ होकर, अब और अहं के लिये नहीं बल्कि विश्वगत ईश्वर के लिये कार्य करने के योग्य बन जाता है। अर्जुन का इस कार्य के लिये अह्वान करना, जो सत्ता और शक्ति वह है उसे तथा जिस परम सत्ता और शक्ति का संकल्प उसके द्वारा कार्य करता है उससे उसे सचेतन करना ही देहधारी भगवान् का प्रयोजन है। इस उद्देश्य के लिये ही भगवान् श्रीकृष्ण उसके सारथी हैं, इस उद्देश्य के लिये ही उसे महान् विषाद ने तथा अपने कार्य के हीनतर मानवीय प्रेरक-भावों के प्रति गहरे असंतोष ने आ घेरा था; उनके स्थान पर विशालतर आध्यात्मिक प्रेरक-भावों की प्रतिष्ठित करने के लिये उसे अपने लिये नियत कर्म की महान् घड़ी में यह सत्यदर्शन प्रदान किया गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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