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भगवान् बोले- अरे भैया! तू फिर मेरे परम वचन को [1] सुन, जिसको मैं तेरे हित की दृष्टि से कहूँगा; क्योंकि हे महाबाहो! तू मेरे में अत्यन्त प्रेम रखता है।
वह परम वचन क्या है भगवन्?
यह सब संसार मेरा ही प्रकट किया हुआ है, इस बात को पूरी तरह से न देवता जानते हैं और न महर्षि ही जानते हैं; क्योंकि मैं सब प्रकार से देवताओं और महर्षियों का आदि हूँ।।1-2।।
जब सबके मूल और आपको देवता और महर्षि लोग भी नहीं जानते तो फिर मनुष्य आपको कैसे जानेगा और उसका कल्याण कैसे होगा?
जो मनुष्य मुझे अजन्मा, अविनाशी और सम्पूर्ण लोकों का महान् ईश्वर जानता है अर्थात् दृढ़ता से मानता है, वह मनुष्यों में जानकार है और वह सब पापों से छूट जाता है।।3।।
वह आपका परम वचन मैं कैसे समझूँ भगवन्?
बुद्धि, ज्ञान, मोहरहित होना, क्षमा, सत्य, इन्द्रियों को वश में करना, मन को वश में करना, सुख, दुःख उत्पन्न होना, लीन होना, भय, अभय, अहिंसा, समता, संतोष, तप, दान, यश और अपयश-प्राणियों के ये अनेक प्रकार के और अलग-अलग भाव मेरे से ही होते हैं। केवल ये भाव ही नहीं, जो मेरे में श्रद्धा-भक्ति रखते हैं और जिनकी संसार में यह सम्पूर्ण प्रजा है, वे सात महर्षि और उनसे भी पहले होने वाले चार सनकादि तथा चौदह मनु भी मेरे मन से पैदा हुए हैं, अर्थात् उन सबका उत्पादक और शिक्षक मैं ही हूँ।।4-6।।
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