चली बन बेनु सुनत जब धाइ।
मातु-पिता-बांधव अति त्रासत, जाति कहाँ अकुलाइ।।
सकुच नहीं, संका कछु नाहीं, रैनि कहाँ तुम जाति।
जननी कहति दई की घाली, काहे कौं इतराति।।
मानति नहीं और रिस पावति, निकसी नातौ तोरि।
जैसै जल-प्रवाह भादौं कौ, सो कौ सकै बहोरि।।
ज्यौं केंचुरी भुअंगम त्यागत, मात-पिता यौं त्यागे।
सूर स्याम कैं हाथ बिकानी, अलि अंबुज अनुरागे।।1003।।