श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-1
अर्जुन विषाद योग
दोषैरेतै: कुलघ्नानां वर्णसंकरकारकै:। हे देव! आप जरा ध्यानपूर्वक सुनें। इसमें एक और भी महापातक होता है। वह यह है कि जब एक कुल पथ भ्रष्ट हो जाता है, तब उसके संगदोष से दूसरे लोग भी पतित हो जाते हैं। जैसे अपने घर में अकस्मात् लगी हुई आग औरों के भी घरों को जलाकर भस्म कर देती है, वैसे ही उस कुल की संगति जिनके साथ होती है, वे सब-के-सब उस कुल के कारण महापापी (दूषित) हो जाते हैं। इस प्रकार अनेक पातकों से युक्त वह कुल केवल नरकगामी ही होता है, उसे नरक की यातना भोगनी पड़ती है।” अर्जुन ने फिर कहा-“जब एक बार वह कुल नरकगामी हो जाता है, तब कल्प के अन्त तक भी वह वहाँ से मुक्त नहीं होता। कुल का घात करने से इसी प्रकार अन्तविहीन अधोगति होती है। हे देव! आपने मेरी तरह-तरह की बातें कान से सुनीं; पर मैं देखता हूँ कि अभी तक आप पर कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा। क्या आपने अपना हृदय वज्र-सा कठोर बना लिया है? आप फिर ध्यान दें। जिस शरीर के लिये सुख-सम्पत्ति की कामना की जाती है, वह सब कुछ क्षणभंगुर है। तो आप ही बताएँ कि इस प्रकार होने वाले महापातक का हम त्याग क्यों न करें? ये सब अपने पूर्वज एकत्रित हुए हैं, उनको मार डालो इस प्रकार की बुद्धि से उनकी तरफ देखा। क्या मुझसे कोई कम गलती हुई है, आप ही बताइये![1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (257-264)
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