श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-11
विश्वरूप दर्शन योग
इनमें से उस पार गये हुए जो ज्ञान सम्पन्न देवताओं के उत्तम समुदाय हैं ये आपके अंगकान्ति से सब कर्मों के बीज जलाकर उत्तम भावना के बल पर आपके स्वरूप में मिल जाते हैं। इधर कुछ ऐसे हैं जो स्वभावतः भयभीत हैं और ये सब प्रकार से आपके सम्मुख होकर करबद्ध प्रार्थना कर रहे हैं कि हे देव! हम लोग अविद्या-सिन्धु में पड़े हुए हैं, विषयों के जाल में उलझे हुए हैं और स्वर्ग तथा संसार के बीच की विषम-अवस्था में फँसे हुए हैं; अब आपके अतिरिक्त इस संसार से हमको कौन उबार सकता है। इसलिये हम लोग विशुद्ध अन्तःकरण से आपकी शरण में आये हैं। बस इसी प्रकार की बातें वे देवता आपसे कर रहे हैं और इधर महर्षियों, सिद्धों और विद्याधरों के समूह कल्याणसूचक वचनों से आपकी स्तुति कर रहे हैं।[1]
रुद्रादित्यों के समूह, अष्ट वसु, समस्त साध्यदेव, दोनों अश्विनीकुमार, विश्वेदेव और वायुदेव-ये सब अपने वैभवसहित तथा अग्नि, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस और इन्द्रादि देवता तथा सिद्ध इत्यादि भी अपनी-अपनी जगह से उत्सुक दृष्टि से आपकी यह देदीप्यमान महामूर्ति देख रहे हैं और देखते-देखते अपने अन्तःकरण में विस्मयपूर्ण होकर अपने मस्तक, हे प्रभो! आपके चरणों पर रख रहे हैं। वे अपने जयघोष से सातों स्वर्गों को गुँजा रहे हैं और दोनों हाथ जोड़कर अपने मस्तक पर रखकर आपको नमन कर रहे हैं। इन विनयरूपी वृक्षों के अरण्य में सात्त्विक भावों का वसन्त काल सुशोभित हो रहा है और उनके कर-सम्पुटरूपी पल्लवों में आपका रूप-फल स्वतः लटक रहा है।[2] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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