दीनबन्धु! करुणा-वरुणालय! सहज पतितपावन स्वामी।
दीन-हीन, संतप्त, पतित, मैं सत्पथ-विमुख, कुपथगामी॥-टेक॥
नहीं धर्म-निष्ठा जीवन में, नहीं सत्कर्मों का आचार।
फिर निष्काम-भाव, प्रभु-अर्पित कर्मों की चर्चा बेकार॥
मलिन हृदय में होता कैसे नित्य-अनित्य वस्तुका जान।
बिना विवेक विराग नहीं, वैराग्य बिना कैसा विज्ञान।
भोग-वासनाओं में धंसकर जीवन बना काम-कामी॥1॥-दीन०
ममता और अहंताका जीवन में कभी न नाश हुआ।
ममता लगी न प्रभु-चरणों में, ‘अहं’ न प्रभुका दास हुआ॥
जगके प्राणि-पदार्थों में ममता का सदा विकास हुआ।
अहं-भावका तनमें, मनमें, कृतिमें नित्य प्रकाश हुआ॥
‘मैं-मेरे’में मत्त, दीखती नहीं मुझे अपनी खामी॥2॥-दीन०
नहीं प्रेमका लेश हृदय में, भक्ति-भावका बीज नहीं।
बड़ी-बड़ी व्याख्याएँ करता, पर अपने घर चीज नहीं॥
कहता-’प्रभुपर श्रद्धा रखो’, निज मन धीज-पतीज नहीं।
प्रीति-प्रतीति पापमें संतत, मनमें भी कुछ खीझ नहीं॥
तन, मन, वचन-सभी से मैं अघभरे अधःपथ का गामी॥3॥-दीन०