नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
54. कालिन्दी-वन-भोजन
मेरी कृपामयी सखी ने अपनाया मुझे और जब वे अपना लें, श्रीव्रजराजकुमार की कृपा-प्रार्थना पृथक से कहाँ करनी पड़ती है। मुझे नित्य सान्निध्य प्राप्त रहा श्रीनन्दनन्दन` का और मेरी आह्लादिनी श्रीराधा के प्रसाद से ये नवघनसुन्दर मुझे सदा से अपनाये रहे हैं। मेरे प्रवाह-तट पर ही अपना अविर्भाव-स्थल स्थापित किया इन मयूर-मुकुटी ने। मैं इनकी आज्ञा से धरा पर कब से अपने जल रूप में आकर प्रतीक्षा कर रही थी। दिव्यधाम आया धरित्री पर और जब उसके अधीश्वर अवतीर्ण हुए- आविर्भाव की ही रात्रि में, प्राकट्य के प्रहर में ही अपने पाद-स्पर्श का अवसर प्रदान किया मुझे इन पुरुषोत्तम ने। मुझे सबसे अल्प प्रतीक्षा करनी पड़ी है। अपने इस अवतार-विग्रह का सान्निध्य मुझे सबसे प्रथम देना स्वीकार कर लिया आनन्दकन्द ने और गोकुल में जैसे ही भवन-द्वार से बाहर आने लगे, मुझे दर्शन प्राप्त होने लगा। अब यहाँ वृन्दावन में तो पहुँचते ही मेरे पुलिन को ही अपना क्रीड़ा-स्थल बना लिया। वत्स-चारण के इस वन-विहार में कम ही अवसर आता है जब मेरे तट से कुछ दूर जाते हों। घूम-फिरकर सखाओं के साथ बछड़ों को लिये मेरे समीप आ जाते हैं। स्नान ही नहीं, कर-प्रक्षालन और प्रवाह में पुष्प-पूरित पत्र-पुटक सखाओं के साथ प्रवाहित करके सुप्रसन्न होने के अनेक बहाने बनाते हैं। मैं जानती हूँ कि यह मुझे सान्निध्य-दान की कृपा है; किंतु मेरी स्वामिनी श्रीराधा का ही तो यह सुफल है, अन्यथा कृष्णकाया, यमानुजा, कुटिलगतिका, कच्छपाश्रया कालिन्दी में क्या आकर्षण है कि ये भुवन-मोहन इसे इस प्रकार भाँति-भाँति से अपना पाद-स्पर्श प्रदान करते रहें। किस पुण्य से किसी तप-जप से जिनके पाद-पद्मों में प्रीति जन्म-जन्मान्तर में भी ऋषि-मुनि प्राप्त करने की कामना ही करते हैं, वे ये श्रीव्रजराजकुमार मेरे सलिल में, मेरे पुलिन पर सखाओं के साथ विहार करते रहते हैं, यह किसी मेरे सदगुण का, मेरे साधन का प्रभाव तो सम्भव नहीं है। यह मेरी स्वामिनी, इनकी नित्यप्रिया भामिनी का प्रभाव है कि उस श्यामा की प्रीति के कारण उसकी यह पाद-सेविका कृष्णा भी इन श्रीकृष्णचन्द्र को भा गयी है। |
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