परसपर स्याम ब्रज-बाम सोहैं।
सीस सीखंड, कुंडल जटित मनि स्रवन, निरख छबि-स्याम, मन-तरुनि मोहैं।।
नासिका ललित बेसरि बनी अधर-तट, सुभग ताटंक-छबि कहि न जाई।
धरनि पग पटकि, कर झटकि, भौंहनि मटकि, अटकि मन तहाँ रीझे कन्हाई।।
तब चलत हरि मटकि, रही जुवती भटकि, लटकि लटकनि छटकि, छबि बिचारैं।
कहतिं प्रभु-सूर, बहुरौ, चलौ वैसैहीं हमहुँ वैसैं चलैं, जौ निहारैं।।1041।।