पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
42. कर्ण की मनस्विता
श्री कृष्णचन्द्र ने बुआ के घर से बाहर आकर भीष्म आदि सबको आग्रक करके विदा कर दिया किन्तु कर्ण को अपने रथ पर बैठा लिया। अब कृतवर्मा भी विदा हो गये थे और सात्यकि दूसरे रथ पर बैठ गये थे। हस्तिानुर से बाहर श्री वासुदेव ने कर्ण का हाथ पकड़कर बहुत मृदुता से कहा-‘तुम ने वेदज्ञ ब्राह्मणों की बहुत सेवा की है। उनसे परमार्थ तत्त्व का श्रवण किया है। अतः मैं तुमसे यह गुप्त बात बतलाता हूँ कि तुम सूतपुत्र नहीं हो। देवी कुन्ती ने कन्यावस्था में तुम्हें सूर्य के द्वारा जन्म दिया है। धर्मानुसार तुम पाण्डु पुत्र हो और बड़े होने से तुम्हीं राज्याधिकारी हो। तुम्हारे पितृपक्ष में पाण्डव हैं, और मातृपक्ष में यादव। ‘तुम मेरे साथ चलो। तुम्हारा वास्तविक परिचय पाकर युधिष्ठिर और उनके भाई द्रौपदी के पाँचों पुत्र तथा अभिमन्यु तुम्हारा चरण-वन्दन करेंगे। मेरी इच्छा है कि पहुँचते ही महर्षि धौम्य तुम्हारे लिये हवन करें और वेदज्ञ ब्राह्मण तुम्हारा अभिषेक करें। हम सब भी तुम्हें तिलक करेंगे। युधिष्ठिर- तुम्हारे युवराज होंगे। वे हाथ मे श्वेत चामर लेकर तुम्हारे पीछे रथ पर बैठेंगे। भीमसेन तुम्हारे ऊपर श्वेत छत्र लगायेंगे। अर्जुन तुम्हारे सारथि बनेंगे। सब पाण्डवों के पुत्र तथा समर्थक तुम्हारे पीछे चलेंगे। मै तुम्हारे पीछे ही चला करूँगा। तुम चलकर अपने भाईयों को साथ लो और साम्राज्य भोगो।’ यह भेद नीति सफल नही होगी, श्रीकृष्ण यह जानते थे किन्तु कर्ण के साथ उचित व्यवहार किया जाना चाहिए, यदि वह स्वीकार करें, यह अच्युत की इच्छा थी। कर्ण ने गम्भीर होकर कहा - ‘माधव ! सौहार्द्र, स्नेह तथा मित्रता के नाते मेरे हित की इच्छा से आपने जो कुछ कहा ठीक है। मुझे भी पता है कि धर्मानुसार मैं पाण्डु पुत्र हूँ। कुन्ती देवी ने कन्यावस्था में भुवन भास्कर से मुझे गर्भ में धारण किया और उन्हीं की आज्ञा से मुझे त्याग दिया।’ अब कर्ण का स्वर भारी हो गया - ‘अधिरथ सूत मुझे प्रवाह में बहते पाकर घर ले गये। उनकी पत्नी राधा ने मेरा पालन किया। उन महनीया के स्तनों से स्नेहाधिक्य से दूध आ गया। मेरा मल-मूत्र उठाया उन्होंने। अतः मै धर्म को जानकार भी उनके पिण्ड का लोप कैसे कर सकता हूँ। ‘अधिरथ सूत ने मेरा नाम वसुषेण रखा। वे मुझे अपना ही पुत्र मानते हैं। मेरे सब संस्कार उन्होंने कराये। युवा होने पर उन्होंने कई सूत कन्याओं से मेरा विवाह कर दिया। उनसे अब मेरे पुत्र, पौत्र भी हो चुके है। अब सम्पूर्ण पृथ्वी के साम्राज्य के लोभ से, भय से अथवा अन्य कारण से भी में इन सम्बन्धियों को छोड़ नही सकता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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