भक्ति सागर का एक अमूल्य रत्न 2

भक्ति सागर का एक अमूल्य रत्न - प्रभुप्रेमी प्रह्लाद

श्रीमती सरलाजी श्रीवास्तव


यह सुनकर हिरण्यकशिपु आग बबूला हो गया और उसने उन्हें अपनी गोद से उठाकर नीचे पटक दिया। उसने सोचा बालक बहक गया है, अतः गुरु पुत्रों को पुनः उसे उचित शिक्षा देने का निर्देश दिया; किंतु परिणाम विपरीत ही हुआ। जब भी समय मिलता प्रह्लाद जी अपने साथी दैत्य बालकों को भी भगवत्प्रेम महत्त्व बता कर भगवान की शरण में जाने की सलाह देते। वे कहते कि भगवान को प्रसन्न करने के लिये अधिक परिश्रम नहीं करना पड़ता; क्योंकि वे समस्त प्राणियों की आत्मा हैं। वे ही केवल आनन्द स्वरूप परमेश्वर हैं। यह जीव माया के द्वारा भ्रमित किया जा रहा है, अतः उनका दर्शन नहीं कर पाता। माया का आवरण हटते ही उनके दर्शन सम्भव हो जाते हैं। अतः तुम लोग अपने आसुरी प्रवृत्ति को त्याग कर समस्त प्राणियों पर दया करो, उनसे प्रेम करो, भगवान को प्रसन्न करने का यही एक मात्र उपाय है। प्रेम ही परमात्मा है।

किससे बाँधू बैर, जगत में कोई नहीं पराया।
हर प्राणी में प्रतिबिम्बित है, उसी ब्रह्म की छाया।।

किसी भी प्राणी को कष्ट पहुँचाना अधर्म है। सदैव परोपकार की भावना ही हृदय में धारण करनी चाहिये। भगवान केवल निष्काम प्रेम-भक्ति से ही प्रसन्न होते हैं।

धीरे-धीरे सत्संग के प्रभाव से दैत्य बालकों में भी श्री हरि के प्रति निष्ठा जाग्रत होने लगी। जब यह समाचार हिरण्यकशिपु के पास पहुँचा तो उस पापी ने भक्त बालक के वध का निश्चय कर लिया। उन्हें मारने के लिये अनेक उपाय किये गये, किंतु न उनको अग्नि जला सकी, न सर्प डँस सका। जल, वायु और आकाश - सभी ने उनकी रक्षा की।

जाको राखै साइयाँ, मार सके नहिं कोय।
बाल न बाँका कर सके, जो जग बैरी होय।।
जो जगदीश्वर की गोद में सुरक्षित है, उसे मुत्यु का भय कैसा? प्रह्लाद का भगवत्प्रेम ही उनका सुरक्षा-कवच था। अन्ततः मदान्ध हिरण्यकशिपु ने क्रुद्ध हो कर प्रश्न किया - बता, तेरा जगदीश्वर कहाँ है? उन्होंने अत्यन्त शान्त एवं सरल भाव से कहा कि वह तो कण-कण में व्याप्त है। कोई ऐसा स्थान नहीं है जहाँ प्रभु का वास न हो-
ब्यापक ब्याप्य अखंड अनंता। अखिल अमोघसक्ति भगवंता।।
अगुन अदभ्र गिरा गोतीता। सबदरसी अनवद्य अजीता।।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. रा.च.मा. 7।72।4-5

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