भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
चतुर्विधा भजन्ते
भगवद्भक्त चार प्रकार के होते हैं। एक तो आप्तकाम, आत्माराम, परमनिष्काम, तत्त्वविद् ब्रह्मनिष्ठ, परमात्मरहस्यज्ञ ज्ञानी, जिसको ऐन्द्र तथा ब्राह्मपद पर्यन्त के सम्पूर्ण वैभवों की रंचमात्र भी चाह नहीं होती। वे योगीन्द्र, मुनीन्द्र, अमलात्मा, परमात्मा बिना किसी प्रयोजन के सर्वैश्वर्यपूर्ण, मधुरतम लीला-बिहारी भगवान के अव्यावृत भजन में लगे रहते हैं। यद्यपि वे पूर्णकाम, आत्माराम, परब्रह्म में परिनिष्ठत हैं, भजन करने की उन्हें कोई आवश्यकता नहीं है, तथापि वे ब्रह्मानन्द का अनुभव करने वाले मुनिजन, दिव्य, शुद्ध, नित्य, चिन्मय भगवत्स्वरूप के सामने आते ही क्षुब्ध हो उठते हैं और उनके मरे हुए मन भी जीवित होकर इस स्वरूप की एक-एक वस्तु पर मुग्ध हो जाते हैं। जिन इन्द्रियों के विकाररूप रूप, रस, गन्ध, शब्द, स्पर्श से मुमुक्षु-अवस्था में ही चित्त उपरत हो जाता है और भजन करना उनका स्वभाव ही बन जाता है। कमलनयन, घनश्याम के विधुविनिन्दक वदनारविन्द पर अतिमृदुल मन्द मुस्कान एवं उनके अति मनोहर नयनयुगल के कमनीय कृपाकटाक्ष एवं इसी प्रकार प्रभु के अन्याय श्रीअंगों का अवलोकन कर, दृश्य नामरूपात्मक प्रपंचों से अन्यमनस्क चित्त योगीन्द्र, मुनीन्द्र भी लट्टू हो जाते हैं। एक बार दिव्य वैकुण्ठ लोक में श्रीमहाविष्णु के समीप नित्य आत्मनिष्ठ सनकादि ऋषि पधारे। ज्यों ही वे भगवान के सामने पहुँचे और उनके स्वरूप को देखा कि मुग्ध हो गये। भगवान की सुन्दरता देखते-देखते उनके नेत्र किसी प्रकार तृप्त ही न होते थे। भगवान के सौन्दर्य ने ही उन्हें मुग्ध किया हो सो नहीं, प्रणाम करते समय कमल-नयन श्रीहरि के पादपद्मपराग से मिली हुई तुलसी मंजरी का सुगन्ध वायु के द्वारा नासिका मार्ग से ज्यों ही मुनियों के अन्तर में पहुँचा कि उनका मन क्षुब्ध हो गया, उस सुगन्ध की ओर खिंच गया, उस पर मोहित हो गया और आनन्द से उनके रोमांच हो आया- |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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