भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन
अध्याय-13
शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है, और इन दोनों में अन्तर क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ प्रकृति पुरुषं चैव क्षेत्रं क्षेत्रमेव च। अर्जुन ने कहा : हे केशव (कृष्ण), मैं यह जानना चाहता हूँ कि प्रकृति और पुरुष क्या हैं? क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ, ज्ञान और ज्ञेय का उद्देश्य क्या है?कुछ संस्करणों में यह श्लोक प्राप्त नहीं होता। शंकराचार्य ने इस पर टीका नहीं की है। यदि इसे सम्मिलित कर लिया जाए, तो गीता के श्लोकों की कुल संख्या 701 हो जाएगी और 700 नहीं रहेगी, जो कि परम्परागत रूप से मानी हुई संख्या है। इसलिए हमने श्लोकों पर संख्या डालते हुए, इसे सम्मिलित नहीं किया। 1.इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते। श्री भगवान् ने कहा:
हे कुन्ती के पुत्र (अर्जुन), यह शरीर क्षेत्र कहलाता है और जो मनुष्य इसको जानता है, उसे तत्त्व को जानने वाले लोग क्षेत्रज्ञ (क्षेत्र को जानने वाला) कहते हैं। प्रकृति अचेतन गतिविधि है और पुरुष निष्क्रिय चेतना है। शरीर वह क्षेत्र कहा जाता है, जिसमें घटनाएँ घटती हैं; वृद्धि ह्रास और मृत्यु सब इसमें ही होती हैं। निष्क्रिय और अनासक्त चेतन मूल तत्त्व, जो सब सक्रिय दशाओं के पीछे साक्षी-रूप में रहता है, यही सुपरचित अन्तर है। क्षेत्रज्ञ चेतना का प्रकाश है, सब विषयों (पदार्थों) का जानने वाला है।[1]साक्षी व्यक्तिगत शरीरधारी मन नहीं है, अपितु वह ब्रह्माण्डीय चेतना है, जिसके लिए सारा ब्रह्माण्ड ही एक विषय या पदार्थ है। यह शान्त और नित्य है और साक्षी बनकर देखने के लिए इसे इन्द्रियों और मन के प्रयोग की आवश्यकता नहीं होती। क्षेत्रज्ञ परमेश्वर है, जो इस संसार के विषय या पदार्थ रूप में नहीं है। वह सब क्षेत्रों में ब्रह्मा (संसार का बनाने वाला) से लेकर घास की पत्ती तक में सीमित करने वाली दशाओं द्वारा अन्य वस्तुओें से पृथक् किया जाता है, यद्यपि वह सब सीमाओं से रहित है और किसी भी प्रकार की श्रेणियों के रूप में उसकी परिभाषा नहीं की जा सकती। [2] अपरिवर्तनशील चेतना को ज्ञाता या क्षेत्रज्ञ केवल आलंकारिक रूप में(उपचारात्) कहा जाता है। 2.क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत। हे भारत (अर्जुन), तू सब क्षेत्रों में मुझे क्षेत्रज्ञ समझ। क्षेत्र और उसके जानने वाले के ज्ञान को मैं सच्चा ज्ञान समझता हूँ। शंकराचार्य का मत है कि परमेश्वर अपनी ब्रह्माण्डीय विभूतियों के कारण संसारी प्रतीत होता है, ठीक वैसे ही जैसे कि व्यष्टि-आत्मा शरीर के साथ अपनी एकत्व बुद्ध से बंधा हुआ प्रतीत होता है। [3] ईसाई सिद्धान्त के अनुसार, पतन मनुष्य के अन्दर विद्यमान परमात्मा की मूर्ति को, जो कि स्वतन्त्रता है, भूल जाना है और बाह्य वस्तुओं में फंस जाना है, जो कि परवशता है। तत्त्वतः मनुष्य प्रकृति का अंश नहीं है, अपितु आत्मा का अंश है, जो प्रकृति की अविरामता में हस्तक्षेप करता है। 3.तत्क्षेत्रं यच्च यादृक्च यद्विकारि यतश्य यत्। अब मुझसे संक्षेप में यह सुन कि क्षेत्र क्या है, वह किस प्रकार का है, उसमें क्या-क्या परिवर्तन होते हैं और वह कहाँ से आया है और वह (क्षेत्र को जानने वाला) क्या है और उसकी शक्तियां क्या हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ साथ ही देखिए श्वेताश्वतर उपनिषद्; 6, 16; और मैत्रायणी उपनिषद् 2, 5
- ↑ क्षेत्रज्ञं मां परमेश्वरम् असंसारिणं विद्धि जानीहि सर्वक्षेत्रेषु यः क्षेत्रज्ञः ब्रह्मादिस्तग्बपर्यन्तानेकक्षेत्रोपाधिप्रविभक्तं तं निरस्तसर्वोपाधिभेदं सदसदादिशब्दप्रत्ययगोचरं विद्धि। - शंकराचार्य
- ↑ तत्रैवं सति क्षेत्रज्ञस्येश्वरस्यैव सतोअविद्याकृतोपाधिभेदतः संसारित्यम् इव भवति यथा देहाद्यात्मत्वमृ आत्मनः।
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