भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
अक्रूर ब्रज गये
अक्रूरजी ने फिर कंस की ओर देखा। अन्तत: उन्हें यह तो जानना ही चाहिये कि क्या कहकर वे उन बालकों को यहाँ ले आवेंगे। ‘आप जानते ही हैं कि विष्णु के आश्रित रहने वाले देवताओं ने उन दोनों के द्वारा मेरी मृत्यु निश्चित की है।’ कंस ने अक्रूर पर अपना पूरा विश्वास दिखलाते हुए उन्हें अपनी पूरी योजना सुना दी– ‘वे दोनों यहाँ आ जायेंगे तो मेरा महागज कुवलयापीड काल के ही समान है, उससे मरवा दूँगा दोनों को। यदि उससे किसी प्रकार बच गये तो चाणूर, मुष्टिक, शल, तोशलादि मल्ल हैं; ये मार डालेंगे उन दोनों को।’ ‘देखिये अक्रूर जी! वे दोनों मर जायेंगे तो उनके दु:ख से वसुदेवादि स्वत: अधमरे हो जायेंगे। वसुदेव, उनके सब भाई, भोज-वृष्णि-अन्धकादि वंश के उनके समर्थक तथा नन्दादि गोपों को मैं वहीं रंगशाला में ही मार दूँगा।’ कंस ने मुट्ठियाँ बाँध ली– ‘मेरा पिता उग्रसेन वृद्ध हो गया; किन्तु राज्यासन का लोभ उसका गया नहीं। उसे और उसके भाई शूरसेन को भी मार दू्ंगा। ‘केवल उस नन्दपुत्र कहे जाने वाले कृष्ण से मुझे भय है। उसने भी मेरे समान इन्द्र को पराजित किया है। इन्द्र-यमादि को मैं पुन: पराजित कर लूंगा। ब्रह्मा और शिव तपस्वी हैं। विष्णु सागर में डूबे रहते हैं। इनसे मेरा कोई प्रयोजन नहीं है।’ ‘आप तो मेरे मित्र हैं।’ कंस ने अक्रूरजी के कन्धे पर हाथ रखा– ‘इन सबको मार दूँ तो यह पृथ्वी का राज्य मेरे लिऐ निष्कण्टक हो जायेगा; क्योंकि मगधराज जरासन्ध मेरे श्वसुर हैं। वानर श्रेष्ठ द्विविद मेरे प्यारे सखा हैं। शम्बर, नरक, बाण भी मुझसे ही मैत्री रखते हैं। इन सबको साथ लेकर पृथ्वी के देवपक्षीय सभी नरेशों का हम संहार कर देंगे। सम्पूर्ण धरा का स्थायी आधिपत्य भोगेंगे हम। पृथ्वी ही क्यों त्रिलोकी का राज्य हमारा हो जायेगा। इन्द्र सहित देवताओं को बांध लेंगे। कुबेर को मेरु पर्वत की दुर्गम कन्दरा में फेंक देंगे।’ ‘राजन्! आपने विचार तो बहुत दूर तक सोचकर किया है–अपने अमंगल को, अहित को मिटा देने का आपका निर्णय समझदारी का है; किन्तु सफलता-असफलता में समान भाव रखकर प्रयत्न करना चाहिये। सफलता सदा दैव पर निर्भर रहती है।’ अक्रूर शान्त स्वर से बोले–‘मनुष्य बड़ी-बड़ी अभिलाषायें कर लेता है, पर भूल जाता है कि वह भाग्य के हाथ की कठपुतली है। अत: उसे हर्ष अथवा शोक भोगना पड़ता है।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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