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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
खण्ड : 1
1. शतसाहस्त्री संहिता
नारायण, नरों में श्रेष्ठ नर, तथा देवी सरस्वती को नमस्कार करके ‘जय’ का आरम्भ करना चाहिए। महाभारत इस देश की राष्ट्रीय ज्ञानसंहिता है। सदा उत्थानशील कृष्णद्वैपायन वेदव्यास ने विशाल बदरी के एकान्त आश्रम में बैठकर भारतीय ज्ञान-समुद्र का अपनी विशाल बुद्धि से मंथन किया, जिससे महाभारत-रूपी चंद्रमा का जन्म हुआ। जिस प्रकार समुद्र और हिमालय रत्नों की खान हैं, उसी प्रकार यह महाभारत है। जो इसमें है, वही अन्यत्र मिलेगा; जो यहाँ नहीं है, वह अन्यत्र भी नहीं। व्यास का वाङ्मय-रूपी अमृत भारत राष्ट्र में व्याप्त है। वेदनिधि द्वैपायन का यह महाभारत-रूपी कमल गंगा की अंतर्वेदी में विकसित हुआ सुरभित पुष्प है। लोकों को पवित्र करने वाले इस महाकवि ने अपनी क्रांतिदर्शिनी प्रतिभा से शाश्वती बुद्धि का जो महान प्रज्ञा-स्कंध स्थापित किया, वही महाभारत है। अनन्त वेद-वृक्ष की छाया में बैठकर व्यास ने समग्र लोक-जीवन के आर-पार देखने वाले अपने प्रातिभ चक्षु से वेद और लोक का अपूर्व समन्वय महाभारत में प्रस्तुत किया है। परम ऋषि द्वैपायन का यह श्रेष्ठ आख्यान विलक्षण शब्द-भंडार से भरा है, जिसमें आदि से अंत तक सौ पर्व हैं। सूक्ष्म अर्थ और न्याय से युक्त, वेदार्थों से अलंकृत, नाना शास्त्रों से उपबृंहित, विलक्षण रचना-कौशल से संस्कार-सम्पन्न, भारत के इतिहास और पुराण की ब्राह्मी संहिता का ही नाम महाभारत है, जो आद्यन्त धर्म से युक्त है। युधिष्ठिर रूपी धर्म भव्य महावृक्ष था। अर्जुन उसका तना था और भीमसेन उसकी शाखाएं थीं। माद्री पुत्र नकुल-सहदेव उसके फूल-फल थे। उसको रस से सींचने वाली जड़ का नाम कृष्ण था, वही ब्रह्म है। सनातन भगवान वासुदेव की महिमा का कीर्त्तन ही कृष्णद्वैपायन विरचित इस पवित्र उपनिषद का लक्ष्य है। वही सत्य है। उसे ही ऋत कहते हैं। वही शाश्वत ब्रह्म है। वही सनातन ज्योति है। वही इस अनित्य, नश्वर जगत में परम ध्रुव है। उसी देव से सत और असत, जन्म और मृत्यु एवं पंचभूतात्मक इस संसार की प्रवृत्ति है। वही इसके भीतर व्याप्त अध्यात्म है। उसी के ध्यान का बल पाकर मन को योगयुक्त करने वाले अपनी आत्मा में भगवान के रूप का इस प्रकार दर्शन करते हैं, जैसे दर्पण में अपना प्रतिबिम्ब देखते हों। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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