मेरे तो गिरधर गोपाल -रामसुखदास पृ. 74

मेरे तो गिरधर गोपाल -स्वामी रामसुखदास

11. हम कर्ता-भोक्ता नहीं है

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एक बात साधक मात्र के हृदय में बैठ जानी चाहिये कि हम सब भगवान् के पुत्र हैं- ‘अमृतस्य पुत्राः’ । कारण कि हम सब भगवान् के ही अंश है- ‘ममैवांशो जीवलोके’। हमसे यही गलती होती है कि हम जिनके अंश हैं, उन भगवान् को अपना न मानकर जड़ वस्तुओं (शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि)- को अपना मान लेते हैं- ‘मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति’|[1] जड़ वस्तुओं को अपना मानने से ही बन्धन हुआ है। यदि अपना न मानें तो मुक्ति स्वतःसिद्ध है। जड़ वस्तु अपनी नहीं है। यदि अपनी होती तो सदा अपने साथ रहती। न शरीर साथ रहेगा, न इन्द्रियाँ साथ रहेंगी, न मन साथ रहेगा, न बुद्धि साथ रहेगी, न प्राण साथ रहेंगी, न मन साथ रहेगा, न बुद्धि साथ रहेगी, न प्राण साथ रहेंगे। कोई भी चीज साथ में नहीं रहेगी। अनन्त ब्रह्माण्डों में अनन्त चीजें हैं, पर उनमें से केश-जितनी चीज भी हमारी नहीं है। फिर शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, प्राण अपने कैसे हुए ?

एक वस्तु अपनी होती है और एक वस्तु अपनी मानी हुई होती है। शरीर आदि अपने नहीं हैं, प्रत्युत अपने माने हुए हैं। जैसे कोई खेल होता है तो उस खेल में कोई राजा बनता है, कोई रानी बनती है, कोई सिपाही बनते हैं तो वे सब माने हुए होते हैं, असली नहीं होते। इसी तरह संसार में व्यक्ति और पदार्थ केवल व्यवहार के लिये अपने माने हुए होते हैं। वे वास्तव में अपने नहीं होते। अपना न स्थूल शरीर है, न सूक्ष्मशरीर है, न कारण शरीर है। जब अपना कुछ है ही नहीं तो फिर हमें क्या करना चाहिये? अपने तो केवल भगवान ही हैं। हम उन्हीं के अंश हैं। भगवान के सिवाय और कोई भी अपना नहीं है। भगवान के सिवाय जो कुछ है, सब मिला हुआ है और छूटने वाला है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गीता 15। 7

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