यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 139

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

तृतीय अध्याय


ऐसे महापुरुष ने कल्प के आदि में यज्ञसहित प्रजा की रचना की। कल्प नीरोग बनाता है। वैद्य कल्प देते हैं, कोई कायाकल्प कराता है। यह क्षणिक शरीरों का कल्प है। वास्तविक कल्प तो तब है, जब भवरोग से मुक्ति मिल जाय। आराधना का प्रारम्भ इस कल्प की शुरुआत है। आराधना पूर्ण हुई तो आपका कल्प पूरा हो गया।

इस प्रकार परमात्मस्वरूपस्थ महापुरुषों ने भजन के प्रारम्भ में यज्ञसहित संस्कारों को सुसंगठित कर कहा कि इस यज्ञ से तुम वृद्धि को प्राप्त होओ। कैसी वृद्धि? क्या मकान कच्चे से पक्का बन जायेगा? क्या आय अधिक होने लगेगी? नहीं, यह यज्ञ ‘इष्टकामधुक्’-इष्ट-सम्बन्धी कामना की पूर्ति करेगा। इष्ट है परमात्मा, उस परमात्मा-सम्बन्धी कामना की पूर्तिवाला है। प्रश्न स्वाभाविक है कि यज्ञ सीधे उस परमात्मा की प्राप्ति करा देगा अथवा क्रम-क्रम से चलकर?-


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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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